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स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

आज्ञावाद

भगवान् प्राह
(2) वीतरागेण यद् द‍ृष्टं, उपदिष्टं समर्थितम्।
आज्ञा सा प्रोच्यते बुद्धै:, भव्यानामात्मसिद्धये॥

वीतराग ने जो देखा, जिसका उपदेश किया और जिसका समर्थन किया, वह आज्ञा हैऐसा तत्त्वज्ञ पुरुषों ने कहा है। आज्ञा भव्य जीवों की आत्मसिद्धि का हेतु है।

आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन में भव्य की परिभाषा देते हुए लिखा हैजो यह सोचता है कि मेरे लिए क्या कुशल है, जो दु:ख से बहुत घबराता है, जो सुख का गवेषक है, जो बुद्धि के गुणों से संपन्‍न है, जो श्रवण और चिंतन करता है, जो अनाग्रही होता है, जो धर्म-प्रिय होता है और जो शासन के योग्य होता है, वह भव्य है। जो भव्य होता है वही आत्म-साक्षात्कार कर सकता है।

(3) तदेव सत्यं नि:शंङ्क यज्जिनेन प्रवेदितम्।
रागद्वेषविजेतृत्वाद्, नान्यथा वादिनो जिना:॥

जो जिन-वीतराग ने कहा, वही सत्य और असंदिग्ध है। वीतराग ने राग और द्वेष को जीत लिया इसलिए वे मिथ्यावादी नहीं होते, अयथार्थ निरूपण नहीं करते।

इस श्‍लोक में सत्य की सुंदरतम परिभाषा दी गई है। सत्य क्या हैइसका स्वरूप-निर्णय पदार्थ के स्वरूप से नहीं हो सकता। वह वक्‍ता की निष्कषाय वृत्ति से होता है। ‘सत्य वही है जो वीतराग द्वारा कथित है’यह परिभाषा सार्वजनिक है। इस परिभाषा को समझने के लिए वीतराग के स्वरूप को जानना आवश्यक होता है। वीतराग वह है जिसके चारों कषाय और मोह का आवरण नष्ट हो चुका है।
अयथार्थ भाषण के हेतु हैंराग-द्वेष और मोह। जिनका लक्ष्य आत्महित है, जो नि:स्वार्थ हैं, वीतराग हैं और कृतकृत्य हैं, वे कभी अयथार्थ भाषण नहीं करते। परंपरा और मान्यता के मोह से मूढ़ व्यक्‍ति अयथार्थ भाषण भी करते हैं। उनमें अपनी प्रतिष्ठा और कीर्ति का मोह होता है। उन बाह्य उपाधियों से मूढ़ व्यक्‍ति अयथार्थ भाषणों और आचरणों में संलग्न हो जाते हैं। लेकिन जो यह मानते हैं कि मेरा उत्थान इनसे नहीं, स्व-आत्मा से है, वे प्राणों का बलिदान करके भी सत्य की रक्षा करते हैं।

(4) आज्ञायामरतिर्योगिन्! अनाज्ञायां रतिस्तथा।
मा भूयात्ते क्वचिद् यस्माद्, आज्ञाहीनो विषीदति॥

हे योगिन्! आज्ञा में तेरी अरति-अप्रसन्‍नता और अनाज्ञा में रति-प्रसन्‍नता कहीं भी न हो, क्योंकि आज्ञाहीन साधक अंत में विषाद को प्राप्त होता है।

(5) अपरा तीर्थकृत् सेवा, तदाज्ञापालनं परम्।
आज्ञाराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय य॥

तीर्थंकर की पर्युपासना की अपेक्षा उनकी आज्ञा का पालन करना विशिष्ट है। आज्ञा की आराधना करने वाले मुक्‍ति को प्राप्त होते हैं और उससे विपरीत चलने वाले संसार में भटकते हैं।
(क्रमश:)