आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

ध्यान प्रशिक्षण की व्यवस्था

साधक गुरु सान्‍निध्य में निशिदिन करे निवास।
तब ही उसकी साधना पाए सतत विकास॥
गमन-स्थान-आसन-शयन-भोजन-भाषण योग।
दिन-निशि-चर्या में रहे, गुरु-इंगित अनुयोग॥

उत्तर : (क्रमश:) एक अध्यात्म साधक के सामने यह सबसे बड़ी समस्या है कि वह इस जीवसंकुल लोक में अहिंसक कैसे रह सकता है? अहिंसा उसका आदर्श है, पर हिंसा की अनिवार्यता को वह कैसे टाल सकता है। इसी विकल्प से आहत होकर शिष्य ने एक प्रश्‍नावली उपस्थित करते हुए पूछा
कहं चरे? कहं चिट्ठे? कहमासे? कहं सए?
कहं भुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई॥
भगवान! मैं कैसे चलूँ? कैसे खड़ा रहूँ? कैसे बैठूँ? कैसे सोऊँ? कैसे खाऊँ? और कैसे बोलूँ? जिससे पाप-कर्म का बंधन न हो।
भगवान ने शिष्य की मन:स्थिति को पढ़ा, उसकी उलझन को समझा और उसका मार्गदर्शन करते हुए कहा
जयं चरे, जयं चिट्ठे, जयमासे, जयं सए।
जयं भुंजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई॥
शिष्य! संयम से चलो, संयम से ठहरो, संयम से बैठो, संयम से सोओ, संयम से खाओ और संयम से बोलो। इस प्रकार अपनी हर क्रिया में संयम रखते हुए तुम पाप-कर्म के बंधन से बचे रह सकते हो।
संयम की स्वीकृति के बाद पल-पल जागरूकता रहे, हर गतिविधि संयम से अनुप्राणित रहे तो समूचा जीवन संयम से भावित हो जाता है। अन्यथा संयम की सम्यक् प्रतिपत्ति नहीं होती। इसी प्रकार एक या दो घंटा ध्यान साधना होती है, बाकी का समय चंचलता में गुजरता है तो ध्यान की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती। ध्यान से चित्त पूरा भावित नहीं होता है तो चर्या में ऊर्जा का संप्रेषण नहीं हो सकता। जिस समय जीवन की संपूर्ण चर्या योग बन जाती है, तब ही व्यवहार में जागरूकता फलित हो सकती है। इस द‍ृष्टि से यह निष्कर्ष निकलता है कि गुरु का अल्पकालीन सान्‍निध्य उसी स्तर पर परिणाम लाता है और दीर्घकालीन सान्‍निध्य का प्रभाव कुछ विलक्षण होता है। ध्यान की अग्रिम भूमिकाओं पर आरोहण करने के लिए गुरु के सतत सान्‍निध्य की अपेक्षा हितप्रद नहीं हो सकती।

ध्यान का गुरुकुल

अंकन भी होता रहे, है विकास या ह्रास?
पाकर समुचित प्रेरणा, कभी न बने निराश॥
गुरुकुल शिक्षा साधना-केंद्र रहे प्राचीन
भारत में थी पद्धति वह कितनी शालीन?
देते पथदर्शन सदा, गुरुकुल में गुरुदेव।
पाता प्रमुदित शिष्य भी, हर शिक्षा स्वयमेव॥
जीवन की हर वृत्ति का, रखते पूरा ध्यान।
अनुशासित संयत सजग, बनता शिष्य महान॥

प्रश्‍न : साधक ध्यान का प्रशिक्षण पाता है और उसके अनुसार प्रयोग करता है। प्रशिक्षण और प्रयोग के बाद परीक्षण का कोई क्रम है क्या? परीक्षण के अभाव में किसी भी साधक को अपनी प्रगति या प्रतिगति की जानकारी नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में साधना-मार्ग में समागत अवरोध को कैसे हटाया जा सकता है?
उत्तर : प्रत्येक प्रवृत्ति की सफलता और असफलता के लिए उसका मूल्यांकन होना बहुत जरूरी है। धर्म के क्षेत्र में तो ऐसा होना ही चाहिए। कोई व्यक्‍ति धर्म की साधना करे और उसका मूल्यांकन न हो तो उसे अपनी प्रवृत्ति की सार्थकता का पता ही नहीं लग सकता। किसी भी साधना का सही-सही बोध उसके मूल्यांकन से ही होता है। ध्यान का साधक भी अपने प्रशिक्षक के मार्गदर्शन में आगे बढ़ता है, किंतु कभी-कभी वह पीछे भी खिसक जाता है। विकास की शृंखला जुड़ती-जुड़ती टूट जाती है और ह्रास का सिलसिला शुरू हो जाता है। साधना के मार्ग में बहुत उतार-चढ़ाव आते हैं। उन्हें तटस्थ भाव से पार करने के लिए हर गतिविधि के समुचित मूल्यांकन की अपेक्षा है। अन्यथा अकस्मात उत्पन्‍न होने वाली स्थिति में साधक का चित्त डांवांडोल हो सकता है। अस्थिरता की स्थिति में वह साधक अपनी समस्या का समाधान पा लेता है, जिसे गुरु का सान्‍निध्य प्राप्त होता है। अपने आप साधना करने वाला उलझ जाता है। यह उलझन अकारण नहीं होती। ध्यान के अभ्यास द्वारा जब सुप्त शक्‍तियों का जागरण होता है तो काम-केंद्र भी जाग्रत हो जाता है। उससे कई प्रकार की कठिनाइयाँ बढ़ जाती हैं। जब कर्म-संस्कार या कर्म-विपाक की उदीरणा की जाती है तब एक प्रकार से धक्‍का-सा लगता है। वह धक्‍का इतना अप्रत्याशित होता है कि कोई सहारा देने वाला न हो तो साधक लड़खड़ा जाता है या गिर जाता है। इसलिए प्राचीन आचार्यों ने गुरु की सन्‍निधि में साधना करने का विधान किया है। उत्तराध्ययन सूत्र में साधक को विशेष मार्गदर्शन देते हुए लिखा गया
आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं, सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धि।ं
निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं, समाहिकामे समणे तवस्सी॥
(क्रमश:)