शरीर को साधना करने का साधन बनाएँ : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शरीर को साधना करने का साधन बनाएँ : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 21 सितंबर, 2021
अणुव्रत अनुशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी का शरीर औदारिक होता है। जैन वाङ्मय में शरीर के पाँच प्रकार बताए गए हैंऔदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर।
इन पाँचों शरीरों में से संसारी अवस्था में तेजस और कार्मण शरीर तो प्रत्येक जीव में रहते हैं।
बाकी तीन शरीर में से औदारिक या वैक्रिय शरीर जीव के उस जीवनकाल में मूलरूप में रहते हैं। मृत्यु के साथ मूल स्थूल शरीर साथ में नहीं जाता है। सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर तो आगे भी जाते हैं। देवता और नारक में वैक्रिय शरीर होता है। वायुकाय को छोड़ मनुष्य व तिर्यंच प्राणियों में औदारिक शरीर होता है। आहारक शरीर तो विशेष प्रयोजन में ही होता है।
हमारा वर्तमान औदारिक शरीर जो स्थूल रूप में है, वो साधना में काम आ सकता है। धर्म करने में साधन बन सकता है। यह आदमी पर निर्भर करता है कि इस स्थूल शरीर का धर्म करने में या पाप करने में कितना उपयोग करता है। आदमी शरीर के विभिन्‍न अंगों को अलंकरणों से विभूषित भी करता है। ये बाह्य अलंकरण है। इनसे शरीर को अलंकृत करने का प्रयास किया जाता है।
और भी कोई आभूषण है, क्या? जिससे शरीर की विभूषा के साथ में आत्मा के कल्याण की भी बात हो। आध्यात्मिक गुणात्मक आभूषण कौन से हैं, यह एक संस्कृत श्‍लोक से समझाया। श्‍लोककार ने कहा है कि जो प्रकृति से महान लोग हैं, उनका मंडन-आभूषण बिना ऐश्‍वर्य के भी होता है, वो क्या है?
हाथ में कंगन भी पहने जाते हैं, पर हाथ का आभूषण हैत्याग, दान। आम जनता को क्या मतलब कि आपके कंगन कैसे हैं। आप जनता के हित के लिए क्या करते हैं, यह महत्त्व रखता है। साधु को शुद्ध दान दो। भाव भक्‍ति से दान देना हाथ का आभूषण है। लौकिक व्यवहार में भी दान को महत्त्व मिलता है। आध्यात्मिक संदर्भों में साधु को शुद्ध दान देना है। भोजन-पानी के साथ साधु को कोई अपनी संतान भी सौंप दे दीक्षा के लिए तो वो बड़ा दान होता है।
सिर का आभूषण हैगुरु के चरणों में प्रणाम करना। मुख का आभूषण हैजबान से सच्ची वाणी बोलना। कोई सोने के दाँत लगवा ले तो वे भले ही दिखने में अच्छे हों, पर कष्ट का कारण बन सकते हैं। कान का आभूषण कुंडल नहीं है, आंतरिक आभूषण है, श्रुत को सुनकर ग्रहण करना। हृदय का आभूषण हैदिल साफ है, हृदय की वृत्ति स्वच्छ है। गले का हार हृदय का बाह्य आभूषण हो सकता है।
भुजाओं का आभूषण हैपौरुष, विजय प्राप्त करने वाला पौरुष। दूसरों की आध्यात्मिक सेवा करना तो पौरुष का भी पौरुष हो जाता है। आभूषण पर आभूषण हो जाता है। ये छ: आभूषण बताए हैं। ये आभूषण हमारे शरीर में हैं, तो बाह्य आभूषण की अपेक्षा नहीं रहती। बाह्य आभूषण तो पैसे से खरीदे जा सकते हैं, पर इन आंतरिक आभूषणों के लिए साधना करनी होती है।
वस्तु का दान देना एक बात है, पर दान देने की भावना होना विशेष बात है। बाह्य आभूषण भारभूत है। ये अध्यात्म के आभूषण कल्याणकारी होते हैं। एक साधु भी दूसरे साधु को दान दे सकता है। योग्य सामग्री के सिवाय, किसी को ज्ञान देना भी दान होता है। अभयदान देना तो श्रेष्ठतम, बहुत ऊँचा दान है।
मुख से आदमी वाणी का अनावश्यक खर्च न करे। परिमित बोलें, जो बोले वो भी अमृतमय होना चाहिए। झूठ या कटु बोलने से वाणी विकृत हो सकती है। वाणी विकृत नहीं, संस्कृत रहे। कटुता और झूठ ये वाणी की विकृति के अंग हैं।
ये जीवन व्यवहार से जुड़ी हुई बातें हैं। आदमी दूसरों की निंदा में अनावश्यक रस न लें। धर्म की अच्छी बातें सुनें। अच्छी सामग्री हमारे भीतर में जा सकेगी। पौरुष का भी दुरुपयोग न हो। ये आभूषण पैसे से मिलने वाले नहीं हैं। खुद की साधना खुद के संस्कार बनें तो इन्हें पहन सकते हैं। सारे गहने पहन भी न सकें तो जितने पहन सके पहने ताकि कल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
72वें अणुव्रत अधिवेशन की पूर्णाहूति पूज्यप्रवर की सन्‍निधि में हुई। पूज्यप्रवर ने फरमाया कि अणुव्रत अधिवेशन का प्रसंग है। परम पूज्य गुरुदेव तुलसी के समय में इसकी शुरुआत हुई थी। अणुव्रत आंदोलन आज एक व्यापक कार्यक्षेत्र लिए हुए है। नास्तिक आदमी भी अणुव्रत का पालन कर सकता है, अणुव्रत का कार्य कर सकता है।
इस बार अधिवेशन लीक से हटकर अणुविभा के स्थान में हुआ है। अणुविभा बहुत वजनदार संस्था बनकर अणुव्रत का कार्य कर रही है। अणुविभा नए रूप में नए दायित्वों के रूप में काम करे। अणुव्रत की बात किसी भी मंच पर की जा सकती है। चुनाव शुद्धि व नशामुक्‍ति का अभियान चलता रहे।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि शब्द या संकेत से जो ज्ञान होता है, वह श्रुत ज्ञान होता है। श्रुत ज्ञान त्रेकालिक होता है। अक्षर के तीन प्रकारसंज्ञा (आकृति), व्यंजनाक्षर (उच्चारण) और लब्धाक्षर (श्रुत ज्ञानावरण का क्षयोपशम) को विस्तार से समझाया।
साध्वीवर्या जी ने मन को निर्मल बनाने के बिंदुओं को एक गीत‘मन निर्मलता को तुम प्राप्त करो,’ के सुमधुर संगान से समझाया। साध्वी प्रांजलयशा जी ने सुमधुर गीत व अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
अणुविभा के मंत्री भीकमचंद सुराणा एवं अध्यक्ष संचय जैन ने अधिवेशन की रूपरेखा को बताया। अणुव्रत के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि मनन कुमार जी ने अणुव्रत की गतिविधियों के बारे में बताया।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।