शस्त्र का नहीं शास्त्रों का अनुगमन करें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शस्त्र का नहीं शास्त्रों का अनुगमन करें : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 24 सितंबर, 2021
महातपस्वी, महामनीषी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि दो शब्द हैंशास्त्र और शस्त्र। आ और अ का अंतर है, बाकी दोनों समान शब्द हैं। परंतु दोनों में अर्थ का बड़ा अंतर है।
शास्त्र वह होता है, जिससे शासन, शिक्षा और अनुशासन मिलता है और इसमें त्राण देने की शक्‍ति होती है। हमारे शास्त्रों में शासन और संयम की बात है। इन शिक्षाओं को कोई अंगीकार कर ले, तो आत्मा को त्राण भी मिल सकता है। जिसके द्वारा शासित-अनुशासित किया जाए, निर्देश दिया जाए वो शास्त्र मान लिया जाए।
दूसरा शब्द हैशस्त्र। जिससे हिंसा की जाए वो शस्त्र होता है। शस्त्र हिंसा का साधन होता है। यहाँ शास्त्रकार ने शस्त्र के दस प्रकार बताए हैं। अहिंसा के पालन के लिए हिंसा को भी समझना अपेक्षित होता है। पाप को समझने के लिए पाप को जान लेना भी अपेक्षित हो सकता है।
नव तत्त्वों में पाप, आश्रव, बंध सब आ गए हैं। हेय और उपादेय दोनों को जान लो, क्योंकि हेय भी ज्ञेय है, उपादेय भी ज्ञेय है। हेय को जानकर छोड़ने का प्रयास करें। उपादेय को जानकर ग्रहण करने का प्रयास करें। यहाँ शस्त्र के दस प्रकार बताए हैं। ये शस्त्र भी ऐसे हैं, जो हमारी धार्मिक चर्या में जानने लायक हैं। ये शस्त्र हैअग्नि, विष, लवण, स्नेह (चिकनाई), क्षार, अम्ल, दुष्प्रयुक्‍त मन, दुष्प्रयुक्‍त वचन, दुष्प्रयुक्‍त काया और अविरति।
अग्नि स्थावर या त्रस जीवों की हिंसा हो सकती है। विष से भी किसी को मारा जा सकता है। लवण व स्नेह (चिकनाई) भी हिंसा का कारण बन जाए। क्षार व अम्ल से भी पानी के जीवों की हिंसा हो सकती है। ये छ: बाह्य शस्त्र बताए गए हैं। चार शस्त्र आंतरिक बताए हैं, जिससे अपनी आत्मा का नुकसान हो जाए। मन, वचन, काय की दुष्प्रवृत्ति आत्मा के लिए शस्त्र है। दसवाँ बहुत बड़ा शस्त्र हैअविरति। अप्रत्याख्यान-त्याग नहीं करना। असंयम-अप्रत्याख्यान है, वो कितना बड़ा शस्त्र है, पापों का बंधन हो जाता है।
इन दस शस्त्रों में प्रथम छ: द्रव्य शस्त्र हैं, शेष चार भाव शस्त्र हैं। आत्मा के लिए हानिकारक है। इन शस्त्रों का जानने का यह उद्देश्य हो सकता है कि शस्त्रों के उपयोग से बचें। मेरे द्वारा जीव हिंसा न हो जाए। मनोयोग, वचन योग, काय योग कर्म निर्जरा के साधन बनते हैं, तो ये कर्म बंधन के भी साधन बन सकते हैं। अशुभ योग से आश्रव होता है और शुभ योग से निर्जरा होती है।
जो मन बंध का कारण है, वो मन निर्जरा का कारण भी बन सकता है। मन को भाव के संदर्भ में ले लें तो ये भाव बंध और मुक्‍ति दोनों का कारण बन सकता है। मन ही मन चिंतन के द्वारा भारी कर्मों का बंध हो सकता है, जैसे तंदुल मत्स्य चिंतन के द्वारा सातवें नरक के आयुष्य का बंध कर लेता है। यह निष्कर्ष निकलता है कि मन वाला प्राणी ज्यादा पाप कर सकता है। बिना मन वाला प्राणी ज्यादा पाप नहीं कर सकता।
असंज्ञी है, वो पहली नरक से आगे नहीं जा सकते। संज्ञी है, वो सातवीं नरक तक जा सकते हैं। मन कितना बड़ा एक पाप का साधन बनता है। इसके विपरीत में देखें तो बारहवें गुणस्थान में मन वाला प्राणी ही जा सकता है। असंज्ञी तो बहुलांश पहले गुणस्थान में ही रहता है। बिना मन वाला प्राणी धर्म के क्षेत्र में भी आगे नहीं बढ़ सकता। धर्म में आगे बढ़ने के लिए समनस्क होना जरूरी है।
दुर्मन है, तो पाप का साधन, सुमन है, तो धर्म का साधन। प्रयास करें हम दुर्मना न बनें। सुमना बनने का प्रयास करें। पवित्र संकल्पों वाला हमारा मन रहे। वह हमें बहुत ऊँचा उठा देता है। शिखर पर जाना है तो मन से भी मुक्‍त होना होगा। मन को पाकर मन से साधना कर पापों से मुक्‍त होना होगा।
तेरहवें गुणस्थान वाले मनुष्य नो-संज्ञी, नो-असंज्ञी होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में तो मनोयोग है ही नहीं, अयोगी अवस्था है। असंज्ञी यानी ज्ञानावरणीय कर्म का उदय और संज्ञी यानी ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम। केवलज्ञानी क्षयोपशम से भी ऊपर क्षय अवस्था वाले हैं। अयोगी है, उनके न तो पुण्य का और न ही पाप का बंध होता है। वे तो अबंध अवस्था में रहते हैं।
मन, वचन और काया दुष्प्रवृत्त है, तो वह भी शस्त्र है। शास्त्रकार ने इनको अंतरंग शस्त्र बताया है जो आत्मा का नुकसान करने वाले शस्त्र बन सकते हैं। बन जाते हैं। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
मुख्य नियोजिका जी ने अवधिज्ञान के प्रकार वर्धमान, हियमान, प्रतिपाती और अप्रतिपाती अवधिज्ञान को विस्तार से समझाया। मन: पर्यव ज्ञान के दो प्रकार ॠजुमति और विपुलमति का विस्तार करते हुए फरमाया कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए पात्रता की आवश्यकता होती है। यह ज्ञान सिर्फ ॠद्धि प्राप्त, अप्रमत्त, संयम सम्यक् द‍ृष्टि प्राप्त, पर्याप्तक, संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमि वाले गर्भज मनुष्यों को ही होता है। साध्वी वर्याजी ने आश्रव-परिश्रम को समझाते हुए कहा कि जिस क्रिया से कर्म का बंधन होता है, उसी क्रिया से कर्म का निर्जन भी हो सकता है। भाव शुद्धि रहने से मन प्रसन्‍न रहता है। साध्वी अखिलयशा जी ने सुमधुर गीत का संगान किया। भीलवाड़ा निवासी दार्शनिक, संवैधानिक और वैश्‍विक चिंतन करने वाले डॉ0 डी0सी0 जैन ने अपनी भावना अभिव्यक्‍त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।