व्यक्‍ति महात्मा नहीं बन सके तो सदात्मा बनने का प्रयास करे : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

व्यक्‍ति महात्मा नहीं बन सके तो सदात्मा बनने का प्रयास करे : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 20 सितंबर, 2021
अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण जी की सन्‍निधि में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंचालक डॉ0 मोहन भागवत दर्शनार्थ पधारे। पूज्यप्रवर ने मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि शास्त्र में कहा गया है कि ज्ञानी आदमी के ज्ञान का सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। अहिंसा ज्ञान का सार है।
हमारे जीवन में तीन तत्त्वों का महत्त्व हैविचार, संस्कार और आचार। विचार और आचार नदी के दो तट हैं। दोनों तटों के मिलने का सेतू हैसंस्कार। विचार संस्कार के माध्यम से आचार में परिणीत हो सकता है। आदमी का कभी-कभी विचार बढ़िया होने पर भी आचार बढ़िया नहीं होता है। तो दोनों में दूरी रह जाती है।
आदमी को अच्छा बनाने के लिए अच्छे विचार उसको दे, अच्छी जानकारी उसे दें और उसमें आस्था वैसी पनप सके, पुष्ट हो सके, वो रुचि-आकर्षण जाग सके तो वो अच्छे विचार आचार में परिणत हो सकते हैं। राग और द्वेष हैं, ये कर्म के बीज हैं, मूल कारण है। राग-द्वेष है, तो आदमी अपराध में चला जाता है। बाहरी युद्ध बाद में शुरू होता है, पहले आदमी के दिमाग में युद्ध शुरू होता है। फिर उसकी परिणति बाहर के युद्ध में होती है।
भगवत् गीता में अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्‍न करता है कि पुरुष किसके द्वारा प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है? कृष्ण कहते हैं कि काम और क्रोध ये दो तत्त्व हैं, जो रजोगुण से उत्पन्‍न होने वाले हैं, ये महापापी हैं। आदमी के वैरी काम और क्रोध हैं। आलस्य मनुष्यों का महान शत्रु है और वो उनके शरीर में रहने वाला है। काम-क्रोध तो भावों में रहने वाले, और भीतर में रहने वाले हैं।
आदमी लोभ या गुस्से से हिंसा कर सकता है। जैन आगम में वीतराग शब्द आता है और गीता में स्थितप्रज्ञ शब्द आता है। जैन आगम में कहा गया कि समता रखो और श्रीमद्भगवद् गीता में भी कहा गया योग यानी समता में रहो। सभी धर्मों के ग्रंथों में यही बात कही गई है कि समता में रहो, समता रखो।
राग-द्वेष या काम-क्रोध ये जितने आदमी के कंट्रोल में रहते हैं, तो आत्मा भी निर्मल रहती है। आदमी का आचार भी अच्छा बन सकता है। भारत में कहते हैं कि सत्संगति करो। संतों या सज्जनों की संगति करो। मैं कहूँगा अच्छे ग्रंथों की भी संगति करो। हम पंचेन्द्रिय प्राणी है, पाँच इंद्रियों में दो इंद्रियाँ आँख और कान ज्ञान की द‍ृष्टि से महत्त्वपूर्ण ज्यादा हैं। कान से बहुत सुनते हैं और आँख से बहुत देखते हैं। पढ़ते हैं तो ग्रहण होता है। अच्छा प्रवचन सुनेंगे तो हमारे भीतर अच्छी सामग्री जा सकेगी। आँखों से अच्छे संत पुरुष के दर्शन होंगे या अच्छे ग्रंथ पढ़ेंगे तो हमारे भीतर अच्छी चीजें जाएँगी। हमारे संस्कार अच्छे होंगे। मजबूत बन सकेंगे।
ध्यान, स्वाध्याय कह दें, यम-नियम कह दें, अणुव्रत कह दें, इनको ज्यों-ज्यों आदमी ग्रहण करता है तो हमारे संस्कार भी फिर मजबूत बन सकते हैं और आचार भी अच्छा बन सकता है। संकल्प है, जो किसी की प्रेरणा से, भावों की शुद्धि से अच्छा जाग जाए। हमारा मन शिव संकल्प, कल्याणकारी, अच्छे संकल्पों से मजबूत बने। आचार अच्छा हो सकता है। सपना लेना, कल्पना करना एक बात है। कल्पना संकल्प बन जाए तो आचार भी अच्छा बन सकता है। विचार है, उस पर आस्था मजबूत हो जाए, अनुप्रेक्षा से, चिंतन से, प्रेरणा से या भावशुद्धि से संस्कार मजबूत बन जाते हैं, तो आचार भी अच्छा बन सकता है। बच्चों को भी प्रेरणा दें तो उनमें अच्छे संस्कार आ सकते हैं। यह एक द‍ृष्टांत से समझाया कि लोभ या बाहरी आकर्षण से कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए।
आर0एस0एस0 के सरसंघ संचालक मोहन भागवत का आना हुआ है। आपके विद्या भारती आदि विद्यालयों में संस्कार संपोषण का कार्य भी होता है। हर कोई महात्मा तो नहीं बन सकता पर सदात्मा तो बने तो भारत अच्छा देश बन सकता है। संस्कार निर्माण का कार्य और चलता रहे। भारत में अनेक धर्मों के ग्रंथ है, उनके ज्ञान को लिया जाए। सच्चाई-अच्छाई जहाँ से भी मिले, उसका आदर करना चाहिए। यथार्थ जहाँ भी मिले वो ग्रहण करने का प्रयास हो। आस्था और आचार सही हो सम्यक् आस्था का होना जरूरी है।
भारतीय प्राच्य साहित्य में जो बातें हैं, वो बड़ी मार्गदर्शक हैं। उनसे हमें पथदर्शन मिल सकता है। अच्छे ढंग से वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में वो बातें समझाई जाती हैं, तो जनता को सन्मार्ग की प्राप्ति हो सकती है। भागवत साहब तो एक मनीषी व्यक्‍तित्व हैं। भागवत साहब भी आध्यात्मिक, धार्मिक, नैतिक मूल्यों की सेवा करते रहें। व्यक्‍तिगत जीवन में भी आध्यात्मिकता की औेतश्रोतता रहे, मंगलकामना।
साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी ने कहा कि भारतीय संस्कृति अपने आपमें एक विशिष्ट संस्कृति है। इसमें ॠषियों-मुनियों, संतों का महत्त्व है। जहाँ संत रहते हैं, वहाँ तीर्थ बन जाता है। तीर्थ अपने आपमें पवित्र होता है। पवित्रता का प्रशिक्षण पाने के लिए लोग वहाँ आते रहते हैं। शास्त्रों का, धर्म का सार यही है कि जो व्यवहार अपने से प्रतिकूल हो, स्वयं को अच्छा न लगे वो तुम दूसरों के प्रति भी मत करो।
आर0एस0एस0 सर संघचालक मोहन भागवत ने अपनी भावना व्यक्‍त करते हुए कहा कि यहाँ तो मैं कई अच्छी बातेें सुनने के लिए आता हूँ। इधर अध्यात्म का काम है, उधर भौतिक जगत का काम है। अपने देश में सब बातों का आधार अध्यात्म ही है। एक-दूसरे से मिलकर आत्मीय भाव से आगे बढ़ना ये धर्म का काम कहा गया है। उस धर्म का श्रीमद्भागवत गीता में चार रूप बताए गए हैंसत्य, अहिंसा (करुणा), सूचिता और तपस।
सब धर्मों में एक ही बात कही गई है। एक को सुन लो तो सबका ज्ञान हो जाता है। हमें तो दूषित वातावरण में रहना पड़ता है, इसलिए एक तरह से हम सफाई कर्मचारी हैं। सफाई करनी पड़ती है। गीता में वही बात है, जो आचार्यश्री ने बताई है। मन को अच्छी बातों में लगाएँ। सत्संगत से मुमुक्षुत्व प्राप्त हो जाता है।
व्यवस्था समिति के अध्यक्ष प्रकाश सुतरिया ने मोहन भागवत का एवं उनके साथ आगंतुक सभी महानुभावों का स्वागत एवं मोमेंटो व साहित्य द्वारा सम्मान किया गया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।