साधु चारित्र में क्षति हो ऐसे उपघातों से बचने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

साधु चारित्र में क्षति हो ऐसे उपघातों से बचने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 16 सितंबर, 2021
जिन शासन के प्रहरी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देषणा प्रदान कराते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में उपघात के दस प्रकार बताए गए हैंउद्गम, उत्पाद एषणा ये भिक्षा संबंधी नियमों का अतिक्रमण या दोष है। उद्गम के दोष आधा कर्मी लोग होते हैं। धात्री आगद उत्पाद के हैं। एषणा के भी हैं। भिक्षा के संदर्भ में जो साधु असावधान रहता है, पूरी एषणा करता नहीं है, जल्दबाजी में ले लेता है, इतनी परवाह नहीं करता। उस साधु के एषणा समिति की असावधानी के कारण से चारित्र में उपघात हो सकता है, क्षति हो सकती है। चौथा उपघात हैपरिकर्म। साधु का ज्यादा ध्यान परिकर्म में रहे। परिकर्म में ज्यादा क्रिया होती है, तो वह भी साधुपन चारित्र में कुछ क्षति पहुँचाने का कार्य हो सकता है। पाँचवाँ हैपरिहरण। उपकरण है, वो अकल्पनीय काम में ले लेता है। अमुक को कहकर कोई चीज मँगवाना। यों अकल्पनीय उपकरणों का उपभोग करना है, उससे भी चारित्र में क्षति हो सकती है। ज्ञान की आराधना। साधु जितना समय मिले, स्वाध्याय करता रहे, वह तो अनुकूल है। परंतु प्रमाद आदि के कारण वो ज्ञान की आराधना अच्छी तरह नहीं कर पाता। साधारण चीजें पढ़ने में इतनी रुचि लेता है, जितनी रुचि नहीं लेनी चाहिए, तो मुख्य ग्रंथ नहीं पढ़ पाता प्रमादी को ज्ञान की आराधना नहीं हो पाती है, तो फिर ज्ञानाराधना में उपघात हो सकता है। सातवाँ हैदर्शन का उपघात, सम्यक्-दर्शन का उपघात। शंका आदि होते रहते हैं, जो अवांछनीय है, उनसे दर्शन शुद्धि में कमी आ सकती है। चारित्र का उपघात। ऐसे समितियाँ हैं। समितियों में जागरूकता नहीं है, तो चारित्र का घात समितियों के भंग से हो सकता है। नवम है अप्रीति उपघात। अप्रीति का घात होने से विनय का घात हो सकता है। जो वंदनीय है, उनके प्रति अप्रीति का भाव आ जाता है, विनयपूर्ण व्यवहार नहीं करता है, तो यह अप्रीति का भाव विनय का उपघात करने वाला हो जाता है। दसवाँ हैसंरक्षण उपघात। शरीर, उपकरण आदि में मूर्च्छा हो जाती है। परिग्रह की चेतना जाग जाती है। अपरिग्रह महाव्रत में क्षति हो जाती है। यह मूर्च्छा भी संयम के लिए उपघात है।
इन उपघातों से बचने का उपाय-प्रयास रहे तो विशद्धि होती है।
ज्ञान आराधना में लक्ष्य है, तो उसके प्रति लगना होता है। तत्त्व ज्ञान में रुचि लेकर के समय लगाएँ तो ज्ञान का विकास हो सकता है।ज्ञान में प्रमाद है, पुरुषार्थ नहीं करता है तो ज्ञान का कैसे विकास हो सकेगा। डिग्री भी विकास का रास्ता है। पर बिना डिग्री वाले भी अच्छे ज्ञान के ज्ञाता हैं। हमारे धर्मसंघ में और ज्ञान का विस्तार होते रहेे। अभ्यास हो, प्रयास हो। भाषण की आत्मा ज्ञान है। भाषा का महत्त्व भाषण का शरीर है। ज्ञान का विकास होता रहे। ज्ञान करते-करते संयम की स्थिति हो सकती है। स्वाध्याय एक माध्यम है, जिससे ज्ञान की वृद्धि हो सकती है। आगम निर्माण में कितने कार्य करने वालों का श्रम लगा होगा। आज कितनी सुविधा से हमें आगम प्राप्त है, उनका हम लाभ उठाएँ। अप्रीति भी नहीं करनी चाहिए। जल्दी से नाराज नहीं होना चाहिए। बात को सुन लो, समझ लो। अप्रीति करने से विनय में कमी आ सकती है। साधु को तो नाराज नहीं होना चाहिए। गृहस्थ भी जल्दी से नाराज न हों। आवश्यक उपकरण साधु के पास रहे। गुरु छोटी-छोटी शिक्षाएँ प्रदान करते रहते हैं, हम उन शिक्षाओं को धारण कर लें तो जीवन अच्छा बन सकता है। संयम का उपघात न हो इसकी सावधानी हमें रखनी चाहिए।  मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि दर्शन के चार प्रमुख विषय बनते हैंज्ञान मीमांसा, प्रश्‍न मीमांसा, तत्त्व मीमांसा और आचार मीमांसा। जिसमें अज्ञान होता है, वह तत्त्व को समझ नहीं पाता है। जिसमें ज्ञान का प्रकाश है, वह व्यक्‍ति प्रकाश की अनुभूति करता है। यह एक द‍ृष्टांत से समझाया। साध्वी केवलयशा जी ने सुमधुरी गीत एवं अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।