साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(17)
क्रांति के स्वर में अगर मुझको पुकारो
मान लूँ मझधार को भी मैं किनारा
बूँद से विस्तार सागर का वरूँगी
पा सकूँ सहयोग जो अविकल तुम्हारा॥

भोर की हर किरण मुझसे पूछती है
रोशनी का रथ यहाँ उतरा कहाँ से
सूर्य ने भेजा मुझे ही तम निगलने
ज्योति का झरना बहा फिर किस जहाँ से
देखकर मौसम मधुर मन मुस्कुराता
हो रहा साकार हर सपना कुँवारा॥

तुम फरिश्ते हो कि मानव हो धरा के
नहीं कुछ भी समझ में आया अभी तक
काफिला अनुराग का क्यों बढ़ रहा है
कहो कुछ तो समझने का है हमें हक
कर रही आह्वान मंजिल हर डगर पर
क्या किसी पथ में उसे तुमने निहारा॥

गीत की अनुगूंज जब सुनती तुम्हारी
जनम जाता है स्वयं ही गीत कोई
झाँकती जब तरल नयनों में तुम्हारे
प्राप्त हो जाती स्वयं पहचान खोई
स्वप्न चाहों का सलोना मैं बुनूँगी
नींद को कर दो अगर तुम कुछ इशारा॥

अगम खुशियों का लगा मेला यहाँ पर
गन्ध गम की पार सागर के गई है
हो भले सब कुछ अजाना या पुराना
मौन आस्था हृदय की सबसे नई है
कर रही इसको निछावर आज तुम पर
है नहीं इससे अधिक उपहार प्यारा॥

(18)
रहे तैरते सदा सतह पर हम जीवन की
तल के मोती चुनने का उत्साह जगाया
देख सामने रात प्रलय की भटक गया मन
तभी सृजन का तुमने उजला प्राप्त उगाया॥

विघटित मूल्यांकन सारे मन में कड़वाहट
बदल गई हैं जीवन की सब परिभाषाएँ
नए-पुराने संदर्भों में है टकराहट
जाग उठी मानव में कैसी प्रत्याशाएँ
तूफानी लहरों ने तट का बंधन तोड़ा
उसके रिसते घावों को तुमने सहलाया॥

चरण चाँद पर टिका चुका है मानव अपने
प्राणों की पीड़ा को पर किसने पहचाना
अभिनिवेश का अंधकार आँखों के आगे
कम्पन है कदमों में देख पंथ अनजाना
राह मिली गति भी मन को विश्‍वास मिला है
जीवन के मूल्यों का तुमने पाठ पढ़ाया॥

युग के दर्पण में बिम्बित इतिवृत्त समूचा
जड़ता को मुस्कानों का वरदान मिला है
दी उड़ने की प्यास विंकल प्राणों के खग को
देख सामने मुक्‍त गगन मन-कमल खिला है
सपनों की दुनिया में सहज भ्रमण हो जाता
पर यथार्थ का आश्‍वासन तुमसे ही पाया॥

टिके तुम्हारी जहाँ देवते! दिव्य निगाहें
मान रहे उसको ही हम तो अपनी मंजिल
चरणचि ये अंकित होंगे जिन राहों में
फूल खिलेंगे वहाँ भले हो पथ वह पंकिल
युग की सभी अपेक्षाओं को समझा तुमने
युगप्रधान पद से युग ने सम्मान बढ़ाया॥
(क्रमश:)