आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

ध्यान प्रशिक्षण की व्यवस्था

साधक गुरु सान्‍निध्य में निशिदिन करे निवास।
तब ही उसकी साधना पाए सतत विकास॥
गमन-स्थान-आसन-शयन-भोजन-भाषण योग।
दिन-निशि-चर्या में रहे, गुरु-इंगित अनुयोग॥
प्रश्‍न : ध्यान का प्रशिक्षण पाने के लिए एक सफल मार्गदर्शन की अपेक्षा को नकारा नहीं जा सकता। वह मार्गदर्शक गुरु के रूप में जिज्ञासु साधकों का पथदर्शन करता है। शिष्य को गुरु के पास निरंतर रहना जरूरी है या यदा-कदा उनका मार्गदर्शन लेकर आगे बढ़ा जा सकता है।
उत्तर : प्राचीन साहित्य में गुरु की उपासना का बहुत महत्त्व रहा है। उपासना का अर्थ हैपास में बैठना। गुरु के पास बैठने वाला, उनकी उपासना करने वाला जिस तत्त्व को प्राप्त कर सकता है, उसे दूर रहने वाला नहीं पा सकता। उपासना करने वाले साधक को केवल सुनने या जानने का ही संयोग नहीं मिलता, गुरु के आभामंडल का आलोक भी मिलता है। गुरु के आभामंडल की सीमा में प्रवेश करते ही शिष्य को अतिरिक्‍त शांति का अनुभव होता है। गुरु के अमित वात्सल्य से जीवन को नई दिशा मिलती है और परिवर्तन की संभावनाएँ पुष्ट हो जाती हैं। प्रयोगों की इस शृंखला में पश्‍चिम जर्मनी में एक प्रयोग हुआ है। वहाँ युवा-पीढ़ी को धूम्रपान के व्यसन से मुक्‍त करने के लिए योग का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। फ्रांस में मादक पदार्थों के सेवन की आदत छुड़ाने के लिए लंबी समुद्री-यात्राओं का प्रयोग हो रहा है। एक प्रयोग में ऐसे बीस व्यक्‍तियों को लंबी सागर यात्रा पर भेजा गया। कहा जाता है कि उनमें से तेरह व्यक्‍तियों की आदतें सुधर गई। क्लेवलेण्ड (अमेरिका) के पुलिस-प्रमुख क्रुक ने अपने अधीन काम करने वाले पुलिस कर्मियों को सुधारने के लिए एक नया तरीका खोजा है। उसने उन लोगों को छूट दी है कि वे पहरे पर जाने के समय अपनी पत्नियों को साथ ले जाएँ। कहा जाता है कि उन लोगों में पत्नी के सामने नशीली वस्तु का उपयोग करने का साहस ही नहीं रहता।
उक्‍त प्रयोग कल्पित नहीं हैं। सिद्धांत और व्यवहार की कसौटी पर वे खरे उतरे हैं। जैन-दर्शन के अनुसार द्रव्यातिक्रांत, क्षेत्रातिक्रांत, कालातिक्रांत और भावातिक्रांत होने पर चेतन और अचेतन दोनों प्रकार के पदार्थों में आश्‍चर्यकारी परिवर्तन हो जाता है। एक सचेतन पदार्थ क्षेत्रातिक्रांत या कालातिक्रांत होकर अचेतन बन सकता है, इससे अधिक परिवर्तन और क्या हो सकता है? उक्‍त प्रयोगों में जर्मनी का प्रयोग द्रव्यातिक्रांत का उदाहरण बन सकता है। फ्रांस का प्रयोग क्षेत्रातिक्रांत का निदर्शन बन सकता है और अमेरिका का प्रयोग भावातिक्रांत का सूचक है। इसी प्रकार कालातिक्रांत से होने वाला परिवर्तन भी प्रयोग का विषय बन सकता है।
इन प्रयोगों से भी अधिक सफल प्रयोग हैगुरु की सन्‍निधि का। गुरु के सान्‍निध्य में उसके आभामंडल के प्रभाव से व्यक्‍तित्व का जैसा रूपांतरण होता है, वह भी कम विस्मयकारक नहीं होता। इस प्रयोग में गुरु शक्‍तिपात करे या नहीं, एक प्रकार से सहज शक्‍तिपात हो जाता है। पुस्तकों को आधार बनाकर ध्यान की विधि सीखी जा सकती है पर वह परोक्ष प्रशिक्षण की प्रक्रिया है। गुरु का प्रशिक्षण प्रत्यक्ष होता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रशिक्षण में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उसके परिणाम में है। इस द‍ृष्टि से गुरु की प्रत्यक्ष उपासना का अतिरिक्‍त मूल्य है।
प्रश्‍न : गुरु की प्रत्यक्ष सन्‍निधि का प्रभाव अनिर्वचनीय होता है, इसमें विप्रतिपत्ति जैसी कोई बात नहीं है। पर जिस साधक को केवल ध्यान का प्रशिक्षण पाना है, उसके लिए दिन-रात गुरु के पास रहने की क्या अपेक्षा है? समय-समय पर प्राप्त प्रशिक्षण से क्या साधना का वांछित परिणाम नहीं आ सकता?
उत्तर : ध्यान दो प्रकार का होता हैसामयिक और समयातीत। सामयिक ध्यान समय की सीमाओं में बँधा हुआ होता है। वह दिन में एक बार, दो बार या चार-पाँच बार किया जा सकता है। समय की द‍ृष्टि से इसमें दो-चार घंटे लग जाते हैं। किंतु समयातीत ध्यान में समय का कोई अनुबंध नहीं रहता। क्योंकि जिस व्यक्‍ति में आत्मोपलब्धि की तड़प तीव्र हो जाती है, वह किसी समय में बंधता नहीं, समय उसके साथ बह जाता है। ध्यान का साधक एक-दो घंटा ध्यान में रहे और शेष समय अध्यान में रहे, चंचलता में रहे, यह वांछनीय नहीं हो सकता। यह वही स्थिति है, जो आज के धर्म की है। धर्म-स्थान में जाकर व्यक्‍ति प्रथम श्रेणी का धार्मिक बन जाता है, पर व्यवहार में धर्म का कोई प्रभाव नहीं रहता। यह दोहरी मानसिकता की स्थिति न धर्म को उजागर कर सकती है और न धार्मिक को एक सच्चे धार्मिक की प्रतिष्ठा दे सकती है। उपासना-काल और आचरण-काल में द्वैध जब तक बना रहेगा, धर्माराधना का अभीष्ट परिणाम नहीं आ सकेगा। ध्यान-साधक का चित्त भी ध्यान से भावित होना चाहिए। ध्यान का प्रभाव समूचे दिन और समूचे जीवन पर होना चाहिए। ध्यान जीवन की समग्रता है। उसे देश और काल-खंडों में विभाजित नहीं किया जा सकता। उसका प्रभाव सुबह जागरण से लेकर रात्रि में शयन तक की हर प्रवृत्ति पर होना चाहिएचलना, बैठना, ठहरना, सोना, बोलना, खाना, पीना आदि जितनी प्रवृत्तियाँ होती हैं, उन सब पर ध्यान की पुट होने से ही व्यवहार में साधना की निष्पत्ति आ सकती है। इसी बात को ध्यान में रखकर साधना के विभिन्‍न रूपों का निर्धारण किया गया हैगमन-योग, स्थान-योग, निषीदन-योग, आसन-योग, शयन-योग, भाषण-योग, भोजन-योग आदि। शब्दों में योग शब्द का प्रयोग इस तथ्य का प्रतीक है कि कोई भी क्रिया जागरूकता के साथ जुड़कर योग बन जाती है।