विषम परिस्थिति में भी चित्त को प्रसन्‍न रखें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

विषम परिस्थिति में भी चित्त को प्रसन्‍न रखें : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 17 सितंबर, 2021
तेरापंथ धर्मसंघ के सरताज आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि संक्लेश कई बार पैदा हो सकता है और संक्लेश की स्थिति भी उत्पन्‍न हो सकती है, रह सकती है। ठाणं के दसवें स्थान के 86वें सूत्र में दस प्रकार संक्लेश के बारे में बताया गया है। कि किन संदर्भों में और निमित्तों से संक्लेश पैदा हो सकता है। संक्लेश का पहला प्रकार हैउपधि संक्लेश, उपकरण कपड़ा आदि अनुकूल नहीं मिला तो संक्लेश पैदा हो जाए। संक्लेश यानी बाधित हो जाना, असमाधि का हो जाना, दूसरा हैउपाश्रय संक्लेश, यानी स्थान संबंधी संक्लेश। चिंतन अच्छा हो तो आदमी कम अनुकूल स्थान आदि में रह सकता है। तीसरा कषाय संक्लेश। कषाय के भाव आ जाएँ तो असमाधि हो सकती है। चौथा हैभक्‍त-पान संक्लेश। भोजन-पानी के संदर्भ में असमाधि अनेक रूपों में पैदा हो सकती है। पाँचवाँ मन का संक्लेश। कोई निमित्त मिला मानसिक गड़बड़ हो जाए, आधि या अवसाद में चला जाए। वाणी का भी संक्लेश हो जाता है। दूसरों की वाणी या खुद की वाणी से संक्लेश हो जाता है। सातवाँ हैकाय संक्लेश। शारीरिक पीड़ा से संक्लेश हो सकता है। ज्ञान-संक्लेश, ज्ञान की अविशुद्धता। ज्ञान का विकास नहीं हो रहा है, याद नहीं कर पाता है या तत्त्व को नहीं पकड़ पाता है, अनेक रूपों में ज्ञान संक्लेश हो जाता है। दर्शन संक्लेश, दर्शन की शुद्धता नहीं है, सच्चाई के प्रति निष्ठा गहरी नहीं हो पा रही है। देव, गुरु, धर्म के प्रति सम्यक् श्रद्धा नहीं हो पा रही है, अनिर्मलता है, तो दर्शन का संक्लेश इस रूप में हो सकता है। चारित्र संक्लेशचारित्र का सम्यक् पालन नहीं करता है, तो चारित्र संबंधी असमाधि हो सकती है। इन्हीं नामों से दस असंक्लेश है। मन को समझा ले, जागरूकता रहे, और संयम की चेतना अच्छी हो तो असंक्लेश की स्थिति भी रह सकती है। यह असमाधि और समाधि है। ज्यादा समाधि तो आदमी के हाथ में ही है, दूसरे निमित्त भले बन जाएँ। पदार्थ, स्थान या व्यक्‍ति समाधि असमाधि में थोड़े निमित्त बन सकते हैं, बाकी तो स्वयं ही निमित्त है। आचार्य महाप्रज्ञ जी का वाक्य है“समस्या और दु:ख एक नहीं है। निमित्तों संबंधी समस्या तो है, पर दु:खी होना जरूरी नहीं है। आदमी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शांत-प्रसन्‍न रह सकता है।”
हमारा मन जितना सध जाता है, फिर परिस्थितियाँ ऐसी-वैसी आ सकती हैं, पर समाधि-असंक्लेश रह सकता है। आदमी यह सोचे मैं दूसरे की असमाधि में निमित्त बनने का प्रयास न करूँ। हो सके तो किसी को समाधि देने का प्रयास करूँ।
भाव और भाषा में अंतर हो सकता है। यह एक द‍ृष्टांत से समझाया। दुनिया में सबसे मीठी वाणी है, जीभ है। दाता कौन? याचक कौन? हाथ की मुद्रा देखो। वाणी से संक्लेश-असंक्लेश हो सकता है, यह भी एक द‍ृष्टांत से समझाया। ज्ञान से भी समाधि हो जाए। स्वाध्याय करते-करते पुस्तक निमित्त बन जाती है, हमारी समाधि हो जाती है। इसलिए ज्ञान भी बड़ा मित्र है कि स्वाध्याय करते-करते चित्त को आनंद मिल सकता है। इस तरह शास्त्रकार ने दस प्रकार के संक्लेश व दस प्रकार के असंक्लेश बताए हैं। हम ज्ञान आदि असंक्लेश की स्थिति का निर्माण हो सके ऐसा यथोचित्य प्रयास करें, यह काम्य है। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि विनय से ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान से दर्शन, दर्शन से चारित्र की प्राप्ति होती है। जो चारित्र को प्राप्त कर लेता है, वह व्यक्‍ति मोक्ष में जाने का अधिकारी बन जाता है। बुद्धि के चार प्रकारों को विस्तार से समझाया। साध्वी पुण्यप्रभा जी ने सुमधुर गीत का संगान किया।
समणी प्रतिभाप्रज्ञा जी आदि समणियाँ विदेश लंदन और अमेरिका से पूज्यप्रवर के श्रीचरणों में पहुँची हैं। समणी प्रतिभाप्रज्ञा जी ने अपने यात्रा के अनुभव बताए। समणी पुण्यप्रभा जी आदि समणियों ने गीत की प्रस्तुति दी। पूज्यप्रवर ने फरमाया कि इस वर्ष का विकास महोत्सव समणियों के लिए मर्यादा महोत्सव जैसा बन गया। लगभग विकास महोत्सव पर 40 समणियाँ थीं। समणी प्रतिभाप्रज्ञा अपनी प्रज्ञा का अच्छा विकास विभिन्‍न आयामों में करती रहे। समणी पुण्यप्रज्ञा जी अमेरिका से आई हैं, वापस लंदन जाने की बात है। संगान भी एक अच्छा माध्यम है। साथ वाली दोनों समणियाँ भी अच्छा उपयोग करते रहें। देश में रहें या विदेश में, मूल चारित्र साधना में बने रहें। खूब अच्छा काम करती रहें। संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।