संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आचार्य महाप्रज्ञ

क्रिया-अक्रियावाद

मेघ: प्राह
(27) कर्माकर्मविभागोऽयं, सम्यग् बुद्धो मया प्रभो!
साध्यसिद्धौ महत्तत्त्वं, अप्रमाद: त्वयोच्यते॥

मेघ बोलाभगवन्! मैंने कर्म और अकर्म का यह विभाग सम्यक् प्रकार से जान लिया है। आपने अप्रमाद को साध्य-सिद्धि का महान् तत्त्व बतलाया है।

कर्म और अकर्म का यह विभाजन मेघ ने भगवान् महावीर के श्रीमुख से सुना। कर्म और अकर्म का बोध सचमुच कठिन है। गीता में कहा है‘कवयोप्यत्र मोहिता:’ बड़े-बड़े विद्वान् भी इस विषय में विमुग्ध हो जाते हैं। गीता में इसका विवेचन कर्म, अकर्म और विकर्म के रूप में उपलब्ध होता है। भगवान महावीर ने कर्म और अकर्म इन दोनों में ही सब समाहित कर दिया।
मेघ का मन इस विभाजन को सुन समाहित हो गया। वह कहता है ‘प्रभो! आप द्वारा विवेचित इस विषय को मैंने अच्छी तरह से जान लिया है।’ ‘सम्यग् बुद्धो’ शब्द के द्वारा यह ध्वनित होता है कि मैंने केवल बुद्धि के स्तर पर नहीं जाना है, उपादेय बुद्धि के द्वारा जाना है, स्वीकार किया है।
साधना का मूल तत्त्व हैअप्रमाद। जीवन का पूरा चक्र प्रमाद की धुरी पर चलता है। प्राणी-जगत् प्रमाद से अधिक परिचित है, अप्रमाद से नहीं। प्रमाद के व्यूह से बाहर निकलने के लिए अप्रमाद की साधना अपेक्षित है। उस स्थिति में अप्रमाद होगाजागरूकता, होश भगवान महावीर ने लक्ष्य के प्रति यत्नवान् रहो, इस पर अधिक बल दिया है। जागरूकता के बिना की गई क्रिया केवल द्रव्य-क्रिया है, उससे साध्य की प्राप्ति नहीं होती। साध्य-सिद्धि में जागरूकता की महत्ती भूमिका है। अप्रमाद जागरूकता है, वर्तमान का क्षण है, और वह चेतना की निकटता का क्षण है। भगवान महावीर का जीवन इसका ज्वलंत प्रमाण है। अन्य संतों ने भी इसे मूल तत्त्व माना है, और इसका प्रयोग किया है।

इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे
क्रियाक्रियावादनामा षष्ठोऽध्याय:।