उपशम कषाय व पापभीरू शासनश्री साध्वी मूलांजी

उपशम कषाय व पापभीरू शासनश्री साध्वी मूलांजी

गुजरात के उत्तर पश्‍चिम सीमांत कच्छ जिले के फतेहगढ़ गाँव के मूल निवासी साध्वी मूलांजी का जन्म वि0सं0 1987, वैशाख शुक्ला द्वादशी को हुआ। धर्मनिष्ठ श्रावक न्यालचंद भाई संघवी की छह संतानों में आप सबसे छोटी थीं। उस समय के रिवाज के अनुसार आपकी सगाई इस गाँव के सेठ परिवार में कर दी गई थी। साध्वी भत्तुजी, मुनि रावतमल जी स्वामी एवं साध्वी छगनांजी (सरदारशहर) के लगातार तीन चातुर्मास फतेहगढ़ को प्राप्त हुए, आपको उन सबकी सन्‍निधि का विशेष लाभ मिला और आपके भीतर वैराग्यांकुर पैदा हुए। वि0सं0 2004 में बीदासर महोत्सव पर आपने गुरुदेव तुलसी के दर्शन कर दीक्षा की प्रार्थना की। उस समय उपस्थित मंत्री मुनि मगनलाल जी ने गुरुदेव को बताया कि गुजरात के लोग बहुत कोमल होते हैं। वे राजस्थान की सर्दी-गर्मी सहन नहीं कर सकते अत: यह दीक्षा नहीं हो सकती। आपके तीव्र वैराग्य को देखते हुए परिवारजनों ने वि0सं0 2005 के छापर चातुर्मास में पुन: पूज्य गुरुदेव के दर्शन करवाए। गुरुदेव ने देखा कि उस समय के यातायात के मर्यादित साधनों के बावजूद यह बहन इतनी लंबी दूरी पार करके दोबारा आकर अर्ज कर रही है। तुरंत गुरुदेव ने स्वयं आपसे बात करके सर्दी-गर्मी के परिषहों के बारे में परीक्षा ली इस परीक्षा में खरे उतरने पर गुरुदेव ने मगनलाल जी स्वामी को कहा यह बहन 1100 किमी0 की दूरी से दोबारा आई है। बहन की भावना मजबूत है। पास में बैठे शुभकरण जी दस्सानी ने कहागुरुदेव! छगनांजी के चातुर्मास में फतेहगढ़ जाकर आया हूँ। इस बहन का वैराग्य और त्याग-प्रत्याख्यान देखकर मैं चाहती हूँ आप नए प्रदेश और गुजरात प्रांत के भाई-बहनों की कोमलता पर तथा स्वयं बहन की शारीरिक कोमलता पर लक्ष्य न दें और बहन के मजीठी वैराग्य के साथ न्यास कराएँ। इस बहन की दीक्षा की मैं जिम्मेदारी लेता हूँ। दस्सानी जी की धर्म दलाली और बहन की मजबूती ने और गुरुदेव के बदले चिंतन ने चारित्र मोह कर्म के क्षयोपशम को प्रबल बना दिया। गुरुदेव ने तुरंत साधु प्रतिक्रमण तथा पुन: एक बार दर्शन किए तब दीक्षा का आदेश प्रदान किया।
दीक्षा का विरोध
दीक्षा निर्णित होने पर ससुराल पक्ष से बात की। वे छ: कोटि स्थानकवासी संप्रदाय के थे। दीक्षा के नाम से ही खफा हो गए। बोले दीक्षा देने का इतना ही शौक जगा है तो आपके घर में चार बहुएँ हैं उनको दे दो। हमारी बहू को हम दीक्षा नहीं देने देंगे। उनके ससुराल पक्ष वाले पीछे-पीछे छापर तक आए, लक्ष्य था अपनी बहू को उठाकर ले आएँगे। वे छापर पहुँचे, दीक्षा के दिन भव्य पंडाल में आचार्य तुलसी के तेज को देखकर के डर गए। बोले कि यहाँ हमारा काम नहीं है। दीक्षा सानंद संपन्‍न हो गई। उन्होंने कच्छ जाकर यह बात फैला दी कि ये भूखे संघवी अपनी बेटी को राजस्थान में बेचकर चाँदी के रुपयों से बोरा भरकर लाए हैं।
अद्वितीय अद्भुत दीक्षा
शासनश्री साध्वी मूलांजी के दीक्षा का प्रसंग अपने आपमें द्वितीय है, अद्भुत है। तेरापंथ के इतिहास में इस प्रकार से दीक्षा कभी नहीं हुई है। आज से 74 वर्ष पूर्व उस समय यातायात के साधनों के अभाव में पारिवारिकजन दीक्षा प्रदान करने जिस तरह अपने गाँव फतेहगढ़ से छापर पहुँचे वह रोचक घटना है।
परिवार से लगभग 50 लोग दीक्षार्थिनी बहन को लेकर फतेहगढ़ से भचाऊ गाँव तक बैलगाड़ी से, भचाऊ से कांडला पोर्ट ट्रेन से, कांडला पोर्ट से नवलखा बंदर पानी के जहाज से, नवलखा बंदर से मोरबी ट्रक से, मोरबी से भीलड़ी से जोधपुर एवं जोधपुर से छापर तक ट्रेन से पहुँचे। इस तरह फतेहगढ़ से छापर (राजस्थान) तक पहुँचने में बैलगाड़ी, ट्रक, ट्रेन और पानी के जहाज का प्रयोग कर पहुँचा अपने आपमें विरल, अद्वितीय घटना है। छापर तक पहुँचने में 6-7 दिन का समय लगा था।
पारिवारिक दीक्षाएँ
आपके संसारपक्षीय संघवी परिवार से 7 आत्माएँ संघ में साधनारत हैं।
(1) मुनि अनंत कुमार जी
(2) साध्वी मंगलयशा जी
(3) साध्वी मुक्‍तिश्री जी
(4) साध्वी मल्लिका जी
(5) साध्वी गौरवयशा जी
(6) साध्वी नवीनप्रभा जी
(7) समणी रुचिप्रज्ञा जी
संयम जीवन में
गुजरात प्रदेश की प्रथम साध्वी दीक्षित होने से आचार्यश्री तुलसी ने आपका नाम मूलांजी रखा। दीक्षा के बाद मूलांजी को नए देश की साध्वी होने के कारण गुरुदेव उनको ‘कच्छी’ कहते हुए पूछवाते कि खाना भाता है या नहीं, रात को नींद आती है या नहीं। गुरुदेव की आत्मीयता प्राप्त कर मूलांजी भी प्रसन्‍न थी। दीक्षा के बाद आपको साध्वी छगनांजी (बोरावड़) को सौंपा। आप पूर्ण समर्पण भाव से एक ही सिंघाड़े में पहले छगनांजी और बाद में शासनश्री पानकंवर जी ‘द्वितीय’ के साथ आजीवन 73 वर्ष रही। सबकी चहेती बनकर रही।
अनुत्तर आत्मीयता
साध्वी मूलांजी और शासनश्री पानकंवर जी ‘द्वितीय’ का संबंध मानो दो शरीर एक आत्मा की तरह था। आप दोनों 73 वर्षों तक साथ रहे। हजारों गाथाओं का प्रतिदिन सह स्वाध्याय करते। कुछ समय पूर्व आप बोले कि “हम दोनों नब्बे पार हैं। अब तो इच्छा है कि एक साथ में संथारा आए और एक साथ ही देवलोक हो जाएँ। दोनों को परस्पर विरह न देखना पड़े।” खैर! नियति को कुछ और ही मंजूर था।
परस्पर साथ रहने के लिए साध्वी मूलांजी ने अग्रगण्य बनकर अलग विचरने की बात को भी अनासक्‍त भाव से मना कर दिया था।
मेरा परम सौभाग्य
मैं अपने आपको परम भाग्यशालिनी मानती हूँ कि मुझे दीक्षा के बाद शासनश्री पानकंवर जी के ग्रुप में मेरी संसारपक्षीय बुआ महाराज साध्वी मूलांजी के सान्‍निध्य में रहने का सुअवसर मिला।
36 वर्षों में मैंने अनुभव किया कि जैसा बाहरी रूप सुंदर था वैसे ही साध्वी मूलांजी भीतर से उपशम कषाय व पापभीरू थे। स्वयं के स्वीकृत नियमों के प्रति सतत् जागरूक थे। प्रतिदिन हजारों गाथाओं का स्वाध्याय कर लेते थे। अंतिम 10 वर्षों से आप लूणकरणसर में प्रवासित थी। आप अस्वस्थ चल रहे थे फिर भी हर स्थिति में आपके भीतर जो समता भाव था वह हमारे लिए अनुकरणीय है। मुझे विशेष रूप से आपकी अंतरंग सेवा का सुअवसर मिला। मैं मानती हूँ कि यद्किंचित् आपके ॠण से उॠण बनी हूँ।
अंत में अपने प्रति यही मंगलकामना करती हूँ कि शासनश्री साध्वी पानकुमारी जी ‘द्वितीय’ के सान्‍निध्य में समाधिस्थ बनकर अपनी आत्मसाधना में आगे बढ़ती रहूँ।