वाणी का उपयोग सारभूत और विवेकपूर्ण हो : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

वाणी का उपयोग सारभूत और विवेकपूर्ण हो : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 7 सितंबर, 2021
अध्यात्म जगत के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने पर्युषण पर्व के चतुर्थ दिवस पर मंगल देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि नयसार का जीव मरिचि के भव में है। भगवान ॠषभ का संसारपक्षीय पौत्र बनने का एक सुअवसर मानो प्राप्त हुआ है। भगवान की देषणा सुनकर मरिचि को वैराग्यवान बनने का भी मौका मिला। वह दीक्षित हो, साधु होकर आगमों का अध्ययन करने लगा।
हमारे यहाँ व्यवस्था है कि तीन वर्ष के संयम पर्याय के बिना अमुक आगमों का विधिवत वाचन नहीं किया जाता हैं। जब तक इनका वाचन नहीं किया जाए तो कुछ-कुछ कार्य साधु को नहीं करने होते हैं।
एक कठिनाई मुनि मरिचि को आ रही है कि गर्मी को सहना कठिन हो रहा है। भीषण प्यास का परिषह होता है, सहना कठिन हो रहा है। रात्रि में पानी नहीं पीना तपस्या है। परिषह विजयी बनना साधु का धर्म होता है। मरिचि ने सोचा मैं साधुपन नहीं पाल पाऊँगा। पर घर में भी नहीं जाना चाहता। साधुपन का पालन न हो तो साधु को साधु-संस्था में नहीं रहना चाहिए।
मरिचि दोनों के बीच का रास्ता निकालकर नए रूप में संन्यासी विधान बनाकर, उसके अंतर्गत अपनी साधना करता है। त्रिदंड-छत्र धारण करना, काषाण-गेरुआँ वस्त्र रखना शुरू कर देता है। त्रिदंड से विजित हो जाता है। मैं मोह से आसन्‍न हूँ, यह बात द्योतक के रूप में मैं छत्र को धारण करूँगा। कषाय से प्रभावित हूँ इसलिए गेरुआँ वस्त्र धारण करूँगा।
अब मरिचि न साधु बना, न गृहस्थ बना, बीच का रह गया। परिमित पानी से स्नान भी करता है। पानी का संयम करना भी अच्छा होता है। गृहस्थ लोग भी पानी का अनावश्यक प्रयोग न करें। अनावश्यक व्यय न हो। अहिंसा और संयम की द‍ृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। मरिचि शरीर पर चंदन का लेप करता है, वह खड़ाऊ पहनकर इस तरह अपना परिवेश बनाकर साधक बन अपने ढंग से साधना करता है।
चक्रवर्ती भरत ने परिषद में भगवान ॠषभ से प्रश्‍न किया कि भगवन! इस अवसर्पिणी काल में कोई ऐसा जीव है, क्या जो आपके समान तीर्थंकर बनेगा। भगवान ने उत्तर दिया कि इस समवशरण में तो ऐसा कोई जीव नहीं है। समवशरण के बाहर तुम्हारा बेटा मरिचि बैठा है, वो मेरी तरह इस अवसर्पिणी काल में अंतिम तीर्थंकर बनेगा। मरिचि वासुदेव और चक्रवर्ती भी बनने वाला है।
अपने बेटे के बारे में ये शुभ सूचनाएँ भरत ने सुनी। पिता के लिए यह एक आह्लाद का विषय बन सकता है कि मेरा पुत्र कितना आगे बढ़ने वाला है। माता-पिता यह ध्यान दें कि उनकी संतान में संस्कार अच्छे हों। समाज की संस्थाएँ भी भावी पीढ़ी में अच्छे संस्कार देने का प्रयास करते हैं। माता-पिता अपनी संतानों को अच्छा संस्कारित बनाने का प्रयास करें, यह काम्य है।
आज पर्युषण दिवस की व्यवस्था के अंतर्गत वाणी संयम दिवस है। वाणी हमारे जीवन का बार-बार काम में लिया जाने वाला तत्त्व-अंग होता है। आगम में निर्देश दिया गया है कि मित बोलो निर्दोष भाषा बोलो और विचारपूर्वक बोलने वाले बनो। इन तीन बातों में वाणी संयम का बहुत सार आ गया है।
वाणी में कभी आदमी बात को ज्यादा लंबा कर देता है। आदमी सारभूत बोलने का लक्ष्य रखे। वाणी के दो विष होते हैंबात को बढ़ाना प्रलंबन करना, लंबा कर दिया और सार-लाभ कुछ है ही नहीं। वाणी के दो गुण हैंपरिमित वाणी और वाणी में सार होना चाहिए।
बोलने का उच्चस्तरीय तरीका हैपरिमित बोलो, सारपूर्ण बोलो। वाणी संयम में भी विवेक हो। कहाँ बोलना, कहाँ नहीं बोलना है। बोलना या न बोलना कोई बड़ी बात नहीं है। बोलने और न बोलने का विवेक रखना बड़ी बात है। जहाँ बोलने की अपेक्षा है वहाँ बोलो। जहाँ अपेक्षा नहीं है, वहा मत बोलो। सिर्फ मौन करके बैठ जाना अच्छी बात है। कौन से दिमाग में कौन सा विचार अच्छा आ जाए, जो विचार कितना कल्याणकारी बन जाए। इसलिए मौके पर बोलना भी चाहिए। हमें वाणी मिली है, कहने की बात कहनी चाहिए। दूसरों को ज्ञान देने में वाणी का उपयोग करो। अच्छा लाभ मिलेगा। इसलिए हमें वाणी में एकांगी नहीं बनना चाहिए।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी ने कहा कि वाणी को बोलने से पहले सोचना और बोलने के बाद तोलना चाहिए। वचन शक्‍ति का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। बिना विचारे बोलने से कई बार अनजाने में अनर्थ हो जाता है।
कार्यक्रम में मुख्य मुनि महावीर कुमार जी, मुख्य नियोजिका विश्रुतविभा जी ने अपने भावों की प्रस्तुति दी। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने वाणी दिवस पर गीत की प्रस्तुति दी। मुनि जयेश कुमार जी, साध्वी तितिक्षाश्री जी ने अपने भाव रखे। आचार्यप्रवर ने विभिन्‍न तपस्याओं के प्रत्याख्यान करवाए। संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।