संवत्सरी महापर्व पर मन में क्षमा धारण कर द्वेष की कलुषता धोएँ : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

संवत्सरी महापर्व पर मन में क्षमा धारण कर द्वेष की कलुषता धोएँ : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 11 सितंबर, 2021
जैन श्‍वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ का पावन पर्व संवत्सरी महापर्व। वर्ष भर में एक दिन आने वाला महापर्व। लौकिक पर्वों में तो खाने-पीने का आनंद लिया जाता है, पर संवत्सरी तो त्याग का पर्व है, इसलिए इसे महापर्व की उपमा दी गई है।
मोक्ष मार्ग के पथदर्शक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने सांवत्सरिक महापर्व पर मंगल देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि आज एक महापर्व का दिवस है, जिसे संवत्सरी के रूप में अभिनीत किया जाता है। जैन शासन में यह महापर्व भाद्रव शुक्ला चतुर्थी या पंचमी को आता है।
यह पर्व अध्यात्म की द‍ृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण दिवस है। मुझे तो संवत्सरी के समान कोई दूसरा पर्व या दिवस नजर नहीं आता है। हमारे संप्रदाय में यह कभी भाद्रवा शुक्ला पंचमी या चतुर्थी को आयोजित हो जाता है। संवत्सरी महापर्व की पृष्ठभूमि में ये सप्त दिवस और जुड़े होने से यह अष्टाह्निक पर्व हो जाता है।
आज के दिन कितने लोग उपवास रत होते हैं। अष्ट प्रहरी, छ: प्रहरी, चतुर्थ प्रहरी पौषध भी होते हैं। यह पर्व क्षमा और मैत्री से जुड़ा हुआ पर्व है। आज के दिन तो सभी से अंतर्मन से क्षमा माँगनी और देनी चाहिए। किसी से वैर-विरोध की, राग-द्वेष के रूप में गाँठ न रहे। यदि लगी हुई हो तो यह खोलने का दिवस होता है। वैर-भाव को धो डालने का दिवस होता है। 84 लाख जीव-योनि से खमतखामणा का विशेष दिवस होता है।
आज के दिन सबसे खमतखामणा हो जाना चाहिए। एक वर्ष से ज्यादा गाँठ रह जाए तो सम्यक्त्व को भी खतरा रह सकता है। समाप्ति की स्थिति हो सकती है। सम्यक्त्व को रखने के लिए अवैर-भाव की इस रूप में अपेक्षा होती है। पूज्यप्रवर ने ‘आयो जैन जगत रो पावन पर्व संवत्सरी रे’ गीत का सुमधुर संगान किया। आज के दिन तो, आने वाले लोग भी साधु-साध्वियों के पास आ जाते होंगे।
जैन शासन से जुड़े लोग जैनी कहलाते हैं, तो उनमें अहिंसा का संस्कार भी रहे। अहिंसा, संयम और तप धर्म है, इनका महत्त्व है। गृहस्थों की जीवन शैली में अहिंसा, संयम और तप तत्त्व जुड़ा रहना चाहिए। सभी शाकाहारी रहे। धर्म का अपना सिद्धांत हो सकता है, उस पर सब अडिग रहें। यह एक प्रसंग से समझाया। विदेशों में तो आज शाकाहार की बात चल रही है। जैन शासन के लोग भोजन व पेय संबंधी अशुचि से बचें। नशीले पदार्थों का प्रयोग न हो।
एक प्रसंग से समझाया कि शराब को मिट्टी में नहीं मिलाएँगे तो शराब हमें मिट्टी में मिला सकती है। अणुव्रत का भी नियम हैनशामुक्‍ति। नशा त्याज्य है, मद्यपान मुक्‍त रहें। भ्रांत-चित्त वाला व्यक्‍ति पापाचार में जा सकता है। दुर्गति में जा सकता है। नशे का त्याग करने से संयम हो जाता है। मांसाहार के त्याग से भी संयम होता है।
जैन धर्म में नमस्कार महामंत्र एक स्थित महामंत्र है। णमोकार को हृदय में, दिमाग में और गले में धारण करने वाला जैन है। बचपन से ही बच्चे को नवकार मंत्र सिखा दिया जाए। जैन जीवन शैली में जैनत्व मुखर होना चाहिए। जैनत्व वाणी में ही नहीं, आचरण में भी आना चाहिए।
जैन शासन के आगमों-ग्रंथों का स्वाध्याय होना चाहिए। देश में रहें या विदेश में रहें, जैन धर्म के सिद्धांतों को समझना चाहिए। अच्छे संस्कार रहने चाहिए। संस्कारों की बड़ी संपदा है। यह एक प्रसंग से समझाया कि एक राजा संस्कार-संपन्‍न होना चाहिए। ज्ञानशाला और क्या है? संस्कार देने का प्रयास और बचपन में ही धर्म से जुड़ने का प्रयास है। जीवन विज्ञान भी शिक्षा जगत से जुड़ा है, जो संस्कारों का पोषण करने वाला है।
यह आज का मैत्री पर्व है। पर्युषण में भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा के संबंध में प्रवचन करते हैं। भगवान की अध्यात्म यात्रा से भी संस्कारों का ग्रहण हो सकता है। नयसार का सत्ताइसवाँ भव, अवसर्पिणी काल का चौथा अर के साढ़े पचहत्तर वर्ष शेष थे। नयसार की आत्मा आषाढ़ शुक्ला को देवलोक से च्युत होकर जंबू द्वीप के दक्षिणार्द्ध भरत वर्ष के दक्षिण ब्राह्मण कुंड नगर के कोडान्‍न सभद्र ॠषभदत्त की भार्या जलंधर गौत्रीया देवानंदा की कुक्षी में वह जीव स्थित होता है।
भगवान महावीर के जन्म के साथ एक विशेष प्रसंग जुड़ा हुआ है कि गर्भ संहरण की बात भी होती है। भगवान के कल्याणकों के साथ हस्तोत्तर नक्षत्र बहुत बार जुड़ा हुआ है, जिसे उत्तरा फाल्गुणी नक्षत्र जिसका नाम है। च्यवन (गर्भ में स्थिति) जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में होता है। गर्भ संहरण के प्रसंग को समझाया। 
हरिणमैषी देव द्वारा देवानंदा की कुक्षी स्थित गर्भ को त्रिशला की कुक्षी में और त्रिशला की कुक्षी में स्थित गर्भ को देवानंदा की कुक्षी में हस्तांतरित कर दिया जाता है। त्रिशला चौदह महास्वप्न देखती है और अपने पति महाराज सिद्धार्थ को बताती है। वर्धमान के गर्भ में हलन-चलन का प्रसंग फरमाया। संसार में माता-पिता का कितना उपकार होता है। सांसारिक और धार्मिक उपकार हो सकता है।
वर्धमान ने चिंतन किया कि मेरे स्पंदन न करने से माता इतनी दु:खी है। मैं उनकी उपस्थिति में दीक्षा नहीं लूँगा। सवा नौ मास का गर्भकाल संपन्‍न होता है। माँ त्रिशला ने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्य रात्रि में ईसा पूर्व 599 और विक्रम पूर्व 542 में एक पुत्र महारत्न को प्रसूत-जन्म देती है। बच्चे का 12 दिन बाद नामकरण किया जाता है। नाम रखा गयावर्धमान।
भगवान बाल्यकाल में स्कूल में भी गए। स्कूल में व्यवस्थित ज्ञान हो सकता है। पर वर्धमान तो विशेष ज्ञान के धनी जन्म से ही थे। वर्धमान की शादी भी हुई। संतान भी पैदा हुई। वर्धमान का पूरा भरा परिवार था। भगवान के माता-पिता पार्श्‍व-परंपरा के श्रमणोपासक थे। श्रमणोपासक बनना भी जीवन में महत्त्वपूर्ण बात होती है। माता-पिता अनशन कर स्वर्ग सिधार गए। उस समय वर्धमान की अवस्था 28 वर्ष की थी।
वर्धमान का गर्भ में लिया हुआ अभिग्रह पूर्ण हुआ। वर्धमान ने बड़े भाई नंदीवर्धन से दीक्षा की अनुमति माँगी, उस प्रसंग को भी विस्तार से समझाया। बड़े भाई की भी बात मानी। बड़ा भाई पिता समान हो जाता है। 2 वर्ष गृहस्थ में और रहे, पर उन दो वर्षों में वे साधनारत रहे।
दो वर्ष बाद नौ लोकांतिक देव वर्धमान के पास आकर दीक्षा लेकर लोककल्याण करने की प्रार्थना करते हैं। वर्धमान ने दीक्षा पूर्व वर्षीदान भी किया। दीक्षा महोत्सव की तैयारियाँ होती हैं। मिगसर कृष्णा दशमी के दिन वर्धमान दीक्षा के लिए घर से अभिनिष्क्रमण करते हैं। ज्ञात खंड के अशोक वृक्ष के नीचे वर्धमान शिविका से नीचे उतरकर वस्त्रालंकरण उतार देते हैं। तीसरा प्रहर, वर्धमान पूर्वाभिमुख होकर पंचमुष्ठि लोचन करते हैं।
वर्तमान में हमारे धर्मसंघ में अपनी विधि है। गुरुकुलवास में कई साधु-साध्वियाँ हैं। वो लोच सफल है, जिसमें लोच कराने वाले को शक्‍ति आ जाए। वर्धमान ने लोच करके बेले की तपस्या में सामायिक चारित्र ग्रहण किया। जीवन भर के लिए सर्व सावद्य प्रवृत्ति का तीन करण-तीन योग से त्याग करते हैं। संकल्प करते हैं कि साधना काल में जो भी उपसर्ग आएँगे, समभाव से सहन करूँगा।
दीक्षा के बाद वहाँ से विहार कर देते हैं। कुर्मारग्राम में ग्वाले द्वारा उपसर्ग दिया जाता है। पर इंद्र उसे समझाते हैं। इंद्र ने प्रभु से निवेदन किया‘मानो प्रभु अर्ज मेरी, सेवा में रह जाऊँ’ गीत का सुमधुर संगान किया। प्रभु ने कहादेवराज! मैंने दीक्षा सुरक्षा के घेरे में रहकर नहीं ली है।
परम प्रभु शिखर के नैकट्य की ओर गतिमान है। प्रभु ने इंद्र से कहा‘जीवन का मर्म सुनाया, भगवान महावीर ने।’ देवराज! ऐसा हुआ नहीं, होगा नहीं कि तीर्थंकर बनने वाले किसी देवेंद्र-नरेंद्र की निश्रा में केवलज्ञान को प्राप्त करें। वे अपने पराक्रम से केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। प्रभु तो खुद अपनी आत्मा की सुरक्षा में लगे हैं।
प्रभु यात्रा चर्चा में आगे बढ़ते हैं। चंडकौशिक सर्प से भी मिलना हुआ है। नागराज को प्रतिबोध दिया। शूलपाणी यक्ष मंदिर में भी रहना हुआ। प्रभु अपनी साधना में लीन रहे। उस सत के अंतिम प्रहर में प्रभु को मुहूर्त भर नींद आ गई। निंद्रा काल में स्वप्न भी देखे। निराहार की तपस्या साधना भी कितनी चल रही है। लंबी-लंबी तपस्याएँ कीं। सबसे बड़ी तपस्या अभिग्रह के कारण 5 माह 25 दिन की हो गई। ऐसे प्रभु साधना करते-करते आगे बढ़ रहे हैं।
साधना काल का तेरहवाँ वर्ष। प्रभु जंभियग्राम के स्थान में ॠजुवालिका नदी के किनारे श्यामा गाथापति के खेत में बेले की तपस्या में गोदोहिका आसन में वैशाख शुक्ला दशमी का दिन, दिन का अंतिम प्रहर, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग है, ऐसी स्थिति में प्रभु विराजमान है। प्रभु ने कैवल्य को प्राप्त किया, जिस लक्ष्य के लिए प्रभु ने अभिनिष्क्रमण किया था। केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रभु को प्राप्त हो गया। वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाते हैं।
बाद में प्रभु की देशनाएँ होती हैं, दीक्षाएँ होती हैं। गणधरों का क्रम भी बनता है। लगभग तीस वर्षों तक प्रभु जनोद्धार का, जनकल्याण का काम करते हैं। आखिर पावापुरी का अंतिम पावस प्रवास। लगभग साढ़े बहत्तर वर्ष की अवस्था, कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि में प्रभु नश्‍वर देह को छोड़कर, आत्मा सिद्धालय-मुक्‍ति में पहुँच जाती है। मोक्ष में विराजमान हो जाती है।
भगवान के बाद गणधरों का शासन चलता है। उत्तरवर्ती अनेक आचार्य हुए हैं। पूज्यप्रवर ने हमारे तेरापंथ के पूर्वाचार्यों के बारे में भी फरमाया। भगवान महावीर के बारे में मैं इस अष्टाह्निक पर्व में बोला हूँ, इस माने में मानो मेरी जिह्वा धन्य हो गई।
आचार्यप्रवर ने द्वितीय चरण में मंगल देषणा देते हुए तेरापंथ के आचार्यों के जीवन-वृत्त पर प्रकाश डाला।
बीच में पूज्यप्रवर ने छ: प्रहरी पौषध-श्रावकों को पचक्खाए। बड़ी तपस्याओं के प्रत्याख्यान पूज्यप्रवर ने करवाए। तपस्वियों को मंगलपाठ की कृपा करवाई।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने संवत्सरी गीत का संगान किया। मुख्य मुनि महावीर कुमार जी ने पर्युषण पर्व को आंतरिक पवित्रता का पर्व बताते हुए इसकी अनेक रूपों में व्याख्या की। दस घंटे से अधिक चले इस कार्यक्रम में समणी प्रणवप्रज्ञा जी, साध्वी विद्युतप्रभा जी, मुनि उदित कुमार जी, मुनि मोहजीत कुमार जी, साध्वी संवरयशा जी, मुनि संबोध कुमार जी, मुनि रमेश कुमार जी, मुनि प्रसन्‍न कुमार जी ने विभिन्‍न विषयों पर अपनी भावाभिव्यक्‍ति दी। संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।