आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी
प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

क्या जैन धर्म में ध्यान की परंपरा है?

प्रश्‍न : आपने अभी कहा कि शरीर को कष्ट देना धर्म नहीं, कष्ट सहना धर्म है। सहने के लिए शरीर को कष्ट देना भी तो जरूरी हो जाता है। अन्यथा धर्म कैसे होगा?
उत्तर : धर्म के अनेक रूप हैं। क्षमा, निर्लोभता, ॠजुता, मृदुता आदि ऐसे रूप हैं, जहाँ कष्ट सहने का नहीं, मन को साधने का अभिक्रम है। इसलिए धर्म करने के लिए शरीर को जान-बूझकर कष्ट देने का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता। अब रही बात अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों की। दोनों प्रकार की परिस्थितियाँ पैदा होती हैं। इन दोनों स्थितियों को समान भाव से सहने की क्षमता अर्जित करना ही धर्म है। इस तथ्य को एक प्रतीक द्वारा समझा जा सकता है
एक रोगी अपनी बीमारी की चिकित्सा के लिए डॉक्टर के पास जाता है। डॉक्टर उसे शल्य चिकित्सा का परामर्श देता है। शल्य चिकित्सा में शरीर को कष्ट होता है। डॉक्टर का उद्देश्य कष्ट देने का नहीं है और रोगी का उद्देश्य भी कष्ट से मुक्‍त होने का है, न कि कष्ट पाने का। फिर भी कष्ट होता है और रोगी उसे सहता है। जिस प्रकार ऑपरेशन शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं है, उसी प्रकार संयम या समाधि की साधन भी शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं है। ऑपरेशन रोग की चिकित्सा है, इसी प्रकार साधना कषाय की चिकित्सा है। यदि साधना का उद्देश्य शरीर को कष्ट देना ही हो तो मुक्‍ति का अर्थ ही नहीं रहता। मुक्‍ति का प्रयोजन हैसव्वदुक्खविमोक्खणट्ठेसब प्रकार के दु:खों से मुक्‍त होना धर्म-साधना का मूल उद्देश्य है। ऐसी स्थिति में यह तथ्य सर्वथा असंगत और अप्रामाणिक है कि जैन परंपरा में शरीर को कष्ट देना ही धर्म माना गया है।
प्रश्‍न : जैन परंपरा में कायक्लेश की बात इस रूप में नहीं है तो क्या वहाँ ध्यान की कोई परंपरा है? भगवान महावीर जैन-परंपरा में अंतिम तीर्थंकर हुए हैं। उनके जीवन में ध्यान-प्रयोग की साधना का उल्लेख या वैसी कोई पद्धति भी उपलब्ध है?
उत्तर : भगवान महावीर का समूचा साधना-काल ध्यान और कायोत्सर्ग के प्रयोगों से जुड़ा हुआ है। उन्होंने दीक्षित होते ही कयोत्सर्ग और ध्यान का संकल्प स्वीकार कर लिया। यद्यपि उन्होंने अपने साधना-काल में दीर्घ उपवास भी किए हैं। इसलिए उनके संबंध में ‘दीर्घ तपस्वी’ शब्द का प्रयोग हुआ है। पर उनकी तपस्या ध्यान शून्य नहीं है। यहाँ भी एक बहुत बड़ी भ्राँति पलती आ रही है। भ्राँति यह है कि भगवान महावीर के दीर्घतपस्वी रूप को पकड़ लिया गया और ध्यान-साधना रूप को छोड़ दिया गया। जिस प्रकार दूसरे साधकों ने केवल ध्यान या केवल उपवास पर बल दिया, वैसे महावीर ने नहीं किया। उन्हें किसी भी क्षेत्र में कोई एकांगी तथ्य मान्य नहीं था। इस द‍ृष्टि से उनका अनेकांत-मूलक दर्शन मूल्यवान है।
भगवान महावीर ने अनुभव किया कि ध्यान का बहुत महत्त्व है, पर उपवास का मूल्य भी कम नहीं है। ध्यान के लिए शरीर निर्दोष होना बहुत जरूरी है। वह निर्दोषता आ सकती है। आहार-परिहार से या आहार-संयम से। उपवास-चिकित्सा ध्यान की पृष्ठभूमि का निर्माण करती है। जो साधक उपवास नहीं कर सकता या आहार-संयम नहीं कर सकता, वह ध्यान का अधिकारी भी नहीं हो सकता। ध्यान की योग्यता अर्जित करने के लिए शरीर और मन दोनों धरातलों को परिष्कृत करना आवश्यक है।
जैन-परंपरा में निर्जरा के बारह भेदों की चर्चा है जो ध्यान के संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण है। उपवास, आहार-संयम, विशेष प्रकार की प्रतिज्ञाएँ और गरिष्ठ भाजन का परिहारये चारों तत्त्व शरीर-शोधन की द‍ृष्टि से बहुत उपयोगी है। एक ध्यान-साधक इसके संबंध में जागरूक नहीं रहता है तो वह अपनी ध्यान-साधना को और आगे नहीं बढ़ा सकता। इसके बाद आसन-प्रयोग के द्वारा शरीर को साधा जाता है। जब तक आसन सिद्ध नहीं होते हैं, दीर्घकालिक ध्यान का प्रयोग नहीं हो सकता। आसन सिद्ध होने के बाद इंद्रियों और मन की उच्छृंखल गति को नियंत्रित करना आवश्यक है। इंद्रिय-विजय और कषाय-विजय की साधना के अनंतर मानसिक दोषों की विशुद्धि का उपाय निरूपित किया गया है। इस स्तर पर पहुँचने के बाद अहं-विसर्जन और समर्पण का अभ्यास जरूरी है। जब तक साधक के भीतर का अहं नहीं गलता है, वह साधना के प्रति भी समर्पित नहीं हो सकता। समर्पित साधक अपनी ज्ञान-चेतना को विकसित करने के लिए स्वाध्याय का आलंबन लेता है, तब कहीं जाकर ध्यान की पृष्ठ-भूमि निर्मित होती है। जो साधक इन सब स्थितियों से गुजरे बिना सीधा ही ध्यान की साधना स्वीकार कर लेता है, वह अधिक समय तक चल नहीं सकता। ध्यान की निष्पत्ति हैव्युत्सर्ग। इस प्रकार व्यवस्थित साधना-पद्धति का आलंबन लेने वाला सहज भाव से आगे बढ़ जाता है।
ध्यान की पद्धति से संबधित प्रश्‍न का जो अंश है, उसका समाधान है‘आयारो।’ आयारो में ध्यान-साधना के इतने बीज बिखरे पड़े हैं, जिन्हें व्यवस्थित करने और विस्तार देने से एक सांगोपांग साधना-पद्धति का निर्धारण किया जा सकता है। इसके लिए गंभीर और व्यापक द‍ृष्टि से आचारांग सूत्र के अध्ययन की अपेक्षा है।

(क्रमश:)