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आचार्य महाप्रज्ञ

क्रिया-अक्रियावाद

(25) प्रमादं कर्म तत्राहु:, अप्रमादं तथापरम्।
तदभावाद्शतस्तच्च, बालं पण्डितमेव वा॥

प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म। प्रमादयुक्‍त प्रवृत्ति बंध का और अप्रमत्तता मुक्‍ति का हेतु है। प्रमाद और अप्रमाद की अपेक्षा से व्यक्‍ति के वीर्यपराक्रम को बाल और पंडित कहा जाता है तथा अभेदद‍ृष्टि से वीर्यवान् व्यक्‍ति भी बाल और पंडित कहलाता है।

मनुष्य प्रवृत्ति-प्रधान है। प्रवृत्ति के बिना वह एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रवृत्ति के दो रूप हैंशुभ और अशुभ। अशुभ प्रवृत्ति राग-द्वेष और मोहमय होती है। इसलिए उसे प्रमाद कहा जाता है। प्रमाद से अशुभ कर्म का संग्रह होता है। इससे आत्मा की स्वतंत्रता छीनी जाती है। शुभ प्रवृत्ति संयम-प्रधान होने से प्रमाद रूप नहीं है। उससे पुण्य-कर्म का संग्रह होता है और पूर्वबद्ध कर्मों का निर्जरण भी। कर्म-क्षय की दशा में आत्मा कर्म-ग्रहण की द‍ृष्टि से अकर्मा बन जाती है, किंतु चेतना की क्रिया बंद नहीं होती।
प्रमाद और अप्रमाद का प्रयोग जहाँ वीर्य-शक्‍ति के साथ होता है, वहाँ वह बाल-वीर्य और पंडित-वीर्य कहलाता है। बाल शब्द अबोधकता का सूचक है। पंडित की चेष्टाएँ ज्ञानपूर्वक होती हैं। ज्ञान हिताहित का विवेक देता है। संयम हित है और असंयम अहित। असंयम का परिहार और संयम का स्वीकार ज्ञान से होता है। बाल-वीर्य की अवस्था में ज्ञान का ोत सम्यक् दिशा-संयम की ओर नहीं होता। वहाँ असंयम की बहुलता रहती है। पंडित-वीर्य संयम-प्रधान होता है। उसमें अशुभ कर्म का ोत खुला नहीं रहता। आत्मा क्रमश: शुभ से भी मुक्‍त होकर अकर्मा बन जाती है।

(26) प्रतीत्याऽविरतिं बालो, द्वय×च बालपण्डित:।
विरति×च प्रतीत्यापि, लोक: पण्डित उच्यते॥

अविरति की अपेक्षा से व्यक्‍ति को बाल, विरति-अविरतिदोनों की अपेक्षा से बाल-पंडित और विरति की अपेक्षा से पंडित कहा जाता है।

शक्‍ति का केंद्र आत्मा है। आत्मा की अक्रियाशीलता में वीर्य सजीव नहीं होता। वीर्य के तीन ोत हैं
(1) जो सर्वथा संयम की ओर प्रवाहित होता है।
(2) जो संयम-असंयम की ओर प्रवहमान रहता है।
(3) जो सर्वथा संयम की ओर उन्मुख रहता है।
वीर्य के मार्गों के कारण व्यक्‍ति के तीन रूप बनते हैंबाल, बाल-पंडित और पंडित।
विरति का अर्थ हैपदार्थ के प्रति आसक्‍ति का परित्याग और अविरति का अर्थ हैपदार्थ के प्रति व्यक्‍त या अव्यक्‍त आसक्‍ति।
विरति और अविरति की अपेक्षा से मनुष्यों के तीन प्रकार होते हैं
बाल-असंयमी, जिसमें कुछ भी विरति नहीं होती।
बाल-पंडितउपासक, जो यथाशक्‍ति विरति करता है। इसमें विरति और अविरति दोनों का अस्तित्व रहता है।
पंडितपूर्ण संयमी, मुनि।
ये तीनों जैन पारिभाषिक शब्द हैं।
(क्रमश:)