आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

 

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

ध्यान की भूमिका

प्रश्‍न : महाव्रत या अणुव्रत की आराधना करने से ध्यान की पूर्वभूमिका अच्छी प्रकार निर्मित हो सकती है या उसके लिए और भी कुछ करना जरूरी है?
उत्तर : महाव्रत जीवन की उत्कृष्ट चर्या है। महाव्रती साधक के सामने ऐसी कोई बाहरी बाधा नहीं रहती, जिसके कारण वह ध्यान के क्षेत्र में आगे न बढ़ पाए। अब रहा प्रश्‍न अणुव्रती साधक का। उसके लिए सबसे पहली अपेक्षा हैव्यसन-मुक्‍ति। आज कुछ लोग ध्यान के परिपार्श्‍व में भी मादक पदार्थों के सेवन को अपनी स्वीकृति देते हैं। भांग, गांजा, चरस आदि मादक वस्तुओं का प्रयोग पहले भी होता था और आज भी होता है। इसके सेवन से एक बार ध्यान की अच्छी भूमिका बन सकती है, किंतु उसके कुछ समय बाद जो कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं, उन्हें दूर करना बहुत कठिन हो जाता है। इस द‍ृष्टि से ध्यान की सात्त्विक भूमिका का निर्माण करने के लिए व्यसन-मुक्‍ति बहुत जरूरी है। अणुव्रत का तो यह विशेष आदर्श है।
व्यसन-मुक्‍त जीवन में भी ध्यान की दो सबसे बड़ी बाधाएँ हैंअहंकार और ममकार। जब तक अस्मिता और ममता का ग्रंथिभेद नहीं होता, तब तक प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिल सकती। ध्यान की भूमिका में निर्विकल्पता का विकास जरूरी है। मनुष्य विकल्पों का सर्जन करता है अहंकार और ममकार से। अहंकार व्यक्‍ति की चेतना को आवृत्त करता है और ममकार उसको पर-सापेक्ष बनाता है। संस्कार के सारे संबंध अहंकार और ममकार से जुड़े हुए हैं। कषायों का विस्तार भी अहंकार और ममकार के कारण होता है। मानवीय वृत्तियों की कलुषता के निमित्त ये ही हैं। इसलिए ध्यान की पूर्वभूमिका का निर्माण करने की द‍ृष्टि से अहंकार और ममकार पर विजय पाना जरूरी है। जिस क्षण ये दोनों तत्त्व नियंत्रित हो जाते हैं, ध्यान की भूमिका अपने आप प्रशस्त हो जाती है।
कुछ लोगों का अभिमत है कि पूर्वभूमिका की प्रतीक्षा में समय लगाने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान प्रारंभ करो, उसके ये परिणाम स्वत: आ जाएँगे। इस अभिमत के साथ असहमति वाली कोई बात नहीं है। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि यह साधना का सुनियोजित क्रम नहीं है। जिस प्रकार खेती करने के लिए योजनाबद्ध पद्धति से काम होता है। भूमि को उर्वर बनाने के लिए उसमें खाद दी जाती है, पानी दिया जाता है, उसे साफ-सुथरा और व्यवस्थित किया जाता है। इस क्रम से फसल अच्छी होती है। इसी प्रकार ध्यान-साधना भी योजनाबद्ध की जाए तो उसका परिणाम जल्दी आता है। ध्यान-साधना की संक्षिप्त योजना यह हो सकती है
ध्यान का अर्थ हैचित्त की एकाग्रता। एकाग्रता के लिए विकल्प-शून्यता नितांत अपेक्षित है। विकल्पों की परंपरा समाप्त करने के लिए चैतसिक निर्मलता का होना जरूरी है। चित्त पर जो रज जमी हुई है, जो मैल जमा हुआ है, उसे दूर करने के लिए महाव्रत और अणुव्रत की आराधना आवश्यक है। व्रतों की आराधना का फलित हैमैत्री, ॠजुता, पदार्थ-विरति, आत्मानुभूति और अमूर्च्छा। इसके द्वारा चित्त को भावित करने से अहंकार और ममकार की ग्रंथियाँ खुलती हैं। ग्रंथिभेद से कर्म संस्कार निर्मूल होते हैं। इस प्रकार ध्यान की एक ठोस पृष्ठभूमि निर्मित हो जाती है। इस पृष्ठभूमि पर साधक ध्यान की विभिन्‍न भूमिकाओं से गुजरता हुआ अपनी मंजिल तक पहुँचने में सफल हो जाता है।

ध्यान-साधना और गुरु

कठिन साधना-मार्ग भी होता सहज सुगम्य।
साधक यदि पाता रहे, गुरु-पथ दर्शन रम्य॥
महाव्रती आचार्यवर स्वयं साधनालीन।
क्षांत मुक्‍त मृदु ॠजुमना, गुरु-पद पर आसीन॥
अथवा प्रेक्षा योग में पारंगत धृतिमान।
कहलाते गुरु अनुभवी कुशल परिज्ञावान॥
प्रश्‍न : ध्यान की पूर्वभूमिका बनाने के लिए और साधना का पथ खोजने के लिए साधक को स्वयं प्रयत्नशील रहना चाहिए या उसे किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में काम करना चाहिए?
उत्तर : साधक दो प्रकार के होते हैंस्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित। प्रथम श्रेणी के साधक असाधारण होते हैं। वे स्वयं अपना रास्ता बनाते हैं और किसी विघ्न-बाधा की चिंता किए बिना ही उस पर चल पड़ते हैं। जिस ओर उनके चरण टिकते हैं, नए पथ का निर्माण हो जाता है। ऐसे व्यक्‍तियों के लिए किसी गुरु के मार्गदर्शन की अपेक्षा नहीं रहती। किंतु जिन साधकों की अपनी प्रज्ञा जागृत नहीं है, जो साधना की प्रक्रिया से अनजान हैं और जो अज्ञात पथ पर बढ़ने का साहस नहीं कर सकते, उनके लिए सुयोग्य गुरु का पथ-दर्शन बहुत आवश्यक होता है।
गुरु की गरिमा सब स्थानों में है। एक छोटे शिल्प को सीखने के लिए भी गुरु की जरूरत पड़ती है, फिर ध्यान जैसा महाशिल्प तो बिना किसी निर्देशक की देखरेख के अधिगत हो भी कैसे सकता है? ध्यान सर्वथा आंतरिक प्रक्रिया है। इसके रहस्य पुस्तकों से नहीं, अनुभव से उपलब्ध हो सकते हैं। पुस्तकीय ज्ञान समूचे विश्‍व का बोध दे सकता है। पर अपने आपके बारे में सही जानकारी पुस्तकों के द्वारा नहीं मिल सकती। अपनी जानकारी पाने के लिए गुरु की शरण में जाना ही पड़ता है। गुरु अनुभवी होता है। वह स्वयं साधना करके अनुभवों का अर्जन करता है और उन्हें जिज्ञासु साधकों में बाँटकर अधिक समृद्ध हो जाता है। गुरु का पथदर्शन मिलने से कठिन साधना मार्ग भी सहज-सरल बन जाता है। इसी तथ्य को अभिव्यक्‍ति देते हुए एक राजस्थानी कवि कहता है
चलतां चलतां जुग भया, तो ही न पाया थाम।
मारग में सतगुरु मिले पावकोस पर गाम॥
(क्रमश:)