अपनी आत्मा को जीतने वाला परमजयी होता है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अपनी आत्मा को जीतने वाला परमजयी होता है : आचार्यश्री महाश्रमण

रतलाम, 24 जून, 2021
परम पावन आचार्यश्री महाश्रमण जी का रतलाम प्रवास का तृतीय दिवस। तेरापंथ के महामहिम ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में जय और पराजय की बात चलती है। युद्ध होता है तो कौन जीता कौन हारा? एक महत्त्वपूर्ण बात युद्ध के संदर्भ में होती है।
चुनाव व अन्य संदर्भों में हार-जीत हो सकती है। जीत को जय कहते हैं। शास्त्रकार ने एक ऊँची बात बताई है कि परम जय किसकी हो सकती है। कोई योद्धा दुर्जन संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीत लेता है, कितनी बड़ी बात है। पर एक संदर्भ में ये परम जय नहीं है। जिसने एक अपनी आत्मा को जीत लिया, वह परम विजयी होता है।
अपनी आत्मा को जीत लेने का मतलब है, अपने कषायों को जीत लेना। अपनी इंद्रिय और मन को जीत लेना। आत्मा को जीत लिया तो हमारी परम जय हो गई। परम आराधना भगवान महावीर को परम जयी आत्मा कहा जा सकता है। साधिक साढ़े बारह वर्षों तक उनका मानो आत्मा के साथ युद्ध चला था। मोहनीय कर्म से लड़ते-लड़ते उनकी जीत हुई। मोहनीय कर्म का सर्वनाश हो गया।
सारे कर्मों में एक मोहनीय कर्म ही दमदार है। सेनापति को खत्म कर दिया तो सेना तो भागने वाली है। मोहनीय कर्म राजा-सेनापति है। अध्यात्म की साधना की मूल बात है, मोहनीय कर्म का नाश करना है, संघर्ष करना है। कई बार मोहनीय कर्म भी आत्मा को पछाड़ने का प्रयास करता है, कई बार सफल भी हो जाता है।
कहीं जीव विजय की ओर आगे बढ़ता है, तो कभी मोहनीय कर्म विजय की ओर आगे बढ़ता है। इतना तेजस्वी सूर्य होता है, फिर भी कभी बादल उसको ढक देते हैं। पर फिर सूर्य बाहर निकलता है और बादल छिन्‍न-भिन्‍न हो जाता है। आत्मा सूर्य है, बादल मोहनीय कर्म है। मोहनीय कर्म पूर्णतया नष्ट हो जाता है तो आत्मा की परम-विजय की स्थिति बन जाती है।
अणुव्रत में भी मोहनीय कर्म को कमजोर करने की बात हो जाती है। अणुव्रत को जैन-अजैन कोई अपना सकता है। छोटे-छोटे नियम अणुव्रत के हैं। प्रेक्षाध्यान के ये प्रयोग हैं, वो प्रियता-अप्रियता से मुक्‍त होकर देखना, ये भी मोहनीय कर्म को कमजोर करने की साधना है। अनुप्रेक्षाएँ भी सलक्ष्य ठीक की जाएँ तो मोहनीय कर्म के अंगों को कमजोर करने वाली साधना हो जाती है।
अपेक्षा है कि चोट कहाँ लगानी, यह एक द‍ृष्टांत से समझाया। हर जगह चोट लगाना भी उचित नहीं है। मोहनीय कर्म में भी यह ध्यान रखना है किसके लिए कौन-सा अंग दबाना जिससे मोहनीय कर्म कमजोर पड़ जाए। अध्यात्म जगत में जय-पराजय की बात आई है। युद्ध की आत्मा को जीतने की बात हम इसको अध्यात्म की द‍ृष्टि से जानें और प्रहार मोहनीय कर्म पर कहाँ करें, कैसे करें।
मोहनीय कर्म को जीतना है तो पहले ज्ञान तो होना चाहिए कि कैसे जीतें? जिस स्तर का आदमी है, उस स्तर का तरीका काम में लिया जाए तो उसे प्रतिबोध देने में सुगमता हो सकती है। ज्ञान सम्यक् हो। हम मोहनीय कर्म को कमजोर करने की दिशा में प्रविधियों को भी जानने का प्रयास करें। प्रविधियों का प्रयोग भी करें और आशा रखें, ऐसे प्रयोग करते-करते सम्यक् प्रयोगों से मोहनीय कर्म हमारा कमजोर भी पड़ सकेगा।
रतलाम में तीसरे दिन का प्रवास हो रहा है। रतलाम में खूब अच्छी धर्म की चेतना प्रबल रहे। साध्वी प्रबलयशा जी का सिंघाड़ा रतलाम चतुर्मास के लिए प्रयुक्‍त है। चारों साध्वियाँ खूब अच्छा काम रतलाम में करें।
अमृत गार्डन से अतिथि गार्डन में आ गए हैं। साधु अतिथि होता है। दोनों दक परिवार में धर्म की चेतना रहे। नैतिकता-अहिंसा का प्रभाव बना रहे, मंगलकामना।
पूज्यप्रवर के स्वागत, अभिवंदना में अतिथि गार्डन के पीयूष दक, अरविंद दक, प्रिया कोठारी, पुनीत भंडारी (मंत्री तेयुप), महिला मंडल से सुनीता कोठारी, सुहानी दक, अंजना दक, मालवा सभा के मंत्री, उपासिका चंदनबाला दक, उपासिका प्रेक्षा मांडोत, पविधि मेहता, मोना कोठारी, देवेंद्र मेहता, प्रिया दक, ज्योति दक, निशा दक, तेरापंथी युवतियाँ, धर्मेन्द्र बम्ब, पर्व नागौरी, सुखराज सेठिया व सुनीता ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
पूज्यप्रवर ने मुनि सिद्धप्रज्ञ जी को प्रेरणा देते हुए फरमाया कि पहले ये समण थे, बाद में श्रमण बन गए हैं। नाम के अनुसार प्रण सिद्ध हो जाए। भावत: भी सिद्ध प्रज्ञता रहे।