दीक्षा ग्रहण में पूर्व जन्म के संस्कारों की विशिष्ट भूमिका : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

दीक्षा ग्रहण में पूर्व जन्म के संस्कारों की विशिष्ट भूमिका : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 27 अगस्त, 2021
करुणा के सागर आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम के दसवें अध्याय के पंद्रहवें सूत्र में प्रव्रज्या के दस प्रकार उल्लेखित हैं। चौथा प्रकार है प्रव्रज्या का स्वप्ना। प्रव्रज्या आदमी ग्रहण करता है, उसकी पृष्ठभूमि में अनेक कारण रह सकते हैं।
प्रव्रज्या एक ऐसा कार्य है, वह यकायक हो जाए, ऐसा प्राय: कठिन लगता है। कुछ उसकी पृष्ठभूमि में होता है, तब व्यक्‍ति प्रव्रज्या को ग्रहण करता है। प्रव्रज्या आदमी लेता है, तो उसके पिछले कई जन्मों के संस्कार अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं। कई बार कोई ऐसा सपना आता है, आदमी के मन में दीक्षा की भावना पैदा हो जाती है। यह एक प्रसंग से समझाया।
मित्र बनाते भी हो तो फिर आध्यात्मिक लाभ आबंटित करने का प्रयास करो। देव मित्र भी हो सकते हैं, जो स्वप्न में आकर अपने मित्र को अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे सकते हैं। नरक गति के चार कारण और देवगति के चार-चार कारण शास्त्रों में बताए गए हैं। देव गति में जाना है, तो सराग संयम ही काम आएगा। वीतराग संयम से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आयुष्य का बंध तो छठे गुणस्थान तक शुरू हो सकता है। उसके बाद नहीं। सातवें में आयुष्य बंध पूर्ण हो सकता है।
देवगति के सुखों के लिए संयम न लें, संयम लें मोक्ष के लिए। पाँचवाँ प्रकार हैप्रतिश्रुता पहले की हुई प्रतिज्ञा के कारण ली जाने वाली। यह धन्‍नाव शालीभद्र के प्रसंग से समझाया। दीक्षा लेना है, तो एक साथ छोड़ो। धन्‍ना ने प्रतिज्ञा ली और शालीभद्र के साथ दीक्षा ली। 

छठा प्रकारस्मारणिका-जन्मांतरों की स्मृति होने पर ली जाने वाली दीक्षा। यह भगवान मल्लीनाथ व उनके पूर्व भव के छह मित्रों के प्रसंग से समझाया। सातवाँ प्रकार हैरोगिणिका, रोग का निमित्त मिलने पर ली जाने वाली प्रव्रज्या। यह चक्रवर्ती सनतकुमार के प्रसंग से समझाया।
आठवाँ प्रकार हैअनाद‍ृता-अनादर होने पर ली जाने वाली प्रव्रज्या। नौवाँ प्रकार हैदेव संज्ञप्ति-देव के द्वारा प्रतिबुद्ध होने पर ली जाने वाली प्रव्रज्या दसवाँ कारण हैवत्सानुबंधिका, अपने बेटे को दीक्षा देते हुए दीक्षा की भावना पैदा हो सकती है। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे धर्मसंघ में हैं।
यह दस प्रकार ठाणं में प्रव्रज्या के बताए गए हैं। दीक्षा में निमित्तों का चित्रण इस सूत्र में किया गया है।

शासनश्री साध्वी मूलांजी की स्मृति सभा

आज हम हमारे धर्मसंघ की एक साध्वीजी की स्मृति सभा कर रहे हैं। साध्वी मूलांजी जो लूणकरणसर में थी। पूज्यप्रवर ने उनका परिचय दिया। इन्होंने आगम बत्तीसी का पारायण किया था। कच्छ प्रांत से उनकी पहली दीक्षा हुई थी। पूज्यप्रवर ने मध्यस्थ भाव से चार लोगस्स का ध्यान करवाया।
साध्वीप्रमुखाश्री जी ने कहा कि सौभाग्यशाली होते हैं, जो जैन शासन में, तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित होकर साधना करते हैं।
मुख्य मुनिप्रवर ने कहा कि व्यक्‍ति को मनुष्य जन्म मिलता है, जिसे शास्त्रों में दुर्लभ कहा गया है। साध्वी मूलांजी ने मनुष्य जन्म को सार्थक करते हुए अल्प अवस्था में ही संयम जीवन स्वीकार किया।
साध्वी गौरवयशाजी, साध्वी नवीनप्रभा जी, साध्वी केवलयशा जी, मुनि अनंत कुमार जी ने भी साध्वी मूलांजी के प्रति अपने उद्गार व्यक्‍त किए।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। विमल डागा व अंकिता डागा ने अठाई के प्रत्याख्यान लिए। सुरेश बोरदिया-डीसा के 21 की तपस्या के प्रत्याख्यान लिए।
मुख्य नियोजिका जी ने सम्यक् दर्शन की महत्ता को समझाते हुए कहा कि हमें जो सम्यक्त्व दर्शन रूपी रत्न प्राप्त हुआ है, वो मोक्ष पर्यन्त कल्याण को ही देने वाला है। सम्यक् दर्शन को हमारे जीवन की आधारशिला बताया गया है।
साध्वीवर्या जी ने कहा कि मनुष्य अमृत का पान करता है, क्या? वह व्यक्‍ति अमृत का पान कर सकता है, जिसका द‍ृष्टिकोण पक्षपात रहित होता है। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।