अर्थार्जन में संयम ना हो तो अर्थ अनर्थ बन जाता है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अर्थार्जन में संयम ना हो तो अर्थ अनर्थ बन जाता है : आचार्यश्री महाश्रमण

हसनपालिया, 26 जून, 2021
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: हसनपालिया पधारे। प्रेरणा प्रदान करते हुए समय के विज्ञ पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने फरमाया कि दो शब्द हैंभोग-योग। आदमी के जीवन में पदार्थों आदि का भोग चलता है। योग का प्रयोग भी जीवन में चलता है। भोग के कारण शरीर को पोषण मिल सकता है और शरीर का नुकसान भी हो सकता
है। भोग से आत्मा का नुकसान भी हो
सकता है।
योग जिसके साथ अध्यात्म जुड़ा हुआ हो, आत्मा को संपोषण देने वाला बन सकता है। आदमी पदार्थों को भोगता है या फिर भोग आदमी को भोगने लग जाते हैं। संस्कृत श्‍लोक में मनीषी कहता है कि भोगों को हमने नहीं भोगा, भोगों ने हमको भोग लिया। नशा करने वाला पहले शराब को पीता है, बाद में शराब आदमी को पीने लग जाती है।
भोगी आदमी संसार में भ्रमण करता है, अभोगी आदमी संसार से मुक्‍त हो जाता है। भोगों में लेप होता है, चिपकाव होता है, उससे कर्मों का बंध भी हो जाता है। जो आदमी आत्मा को दुषित करने वाले भोगों में लिप्त रहता है, वह मूढ़, अज्ञानी, मंद आदमी उसी प्रकार कर्मों में चिपक जाता है, जैसे श्‍लेष्य में मक्खी चिपक जाती है।
गृहस्थ जीवन में सांसारिक भोग भी चलते हैं। आदमी को चाहिए एकांत भोग नहीं, साथ में योग-साधना भी चले। भोग पर योग का अंकुश रहे। अर्थ और काम, धर्म और मोक्ष ये चतुर्वर्ग हैं। अर्थ, काम गार्हस्थ्य में अपेक्षित होता है। पैसा भौतिक दुनिया का ईश्‍वर है। सांसारिक जीवन में पैसे का साम्राज्य चलता है।
अर्थ, काम और धर्म के बिना आदमी का जीवन पशु के समान है। इन तीनों में भी धर्म ज्यादा श्रेष्ठ है। धर्म से विहीन जिसके दिन-रात बीतते हैं, वह आदमी जीवन जीते हुए भी मुर्दा है, जैसे लुहार की धोंकणी। अर्थ-काम भी गृहस्थ में अपेक्षित होता है।
गरीबी की रेखा है, तो अमीरी की भी रेखा निर्धारित होनी चाहिए। अर्थ के साथ संयम-विवेक न हो तो कभी अर्थ-अनर्थ रूप में बन सकता है। अर्थ एक साधन है, काम उसका साध्य है। धर्म शून्य अर्थ और काम है, तो वह नुकसान करने वाला हो सकता है। धर्म एक अंकुश है। अर्थ और काम रथ के दो पहिए हैं। उस पर धर्म रूपी नियंत्रण चाहिए। तो रथ ठीक चल सकता है।
गृहस्थ जीवन में अणुव्रत व प्रेक्षाध्यान एक अंकुश है। भोग में जो लिप्त है, निमग्न है, वो आदमी उसी प्रकार कर्मों से चिपक जाता है, जैसे मक्खी श्‍लेष्य में चिपक जाती है। फिर मोक्ष की ओर जाना बंद हो जाता है।

गृहस्थ दिनचर्या में ध्यान दें योग साधना, धर्म साधना के लिए समय कितना निकाल पाते हैं। एक सामायिक रोज हो जाए तो मान लें जीवन में योग भी चल रहा है। योग साधना में संयम, तपस्या, ज्ञान-स्वाध्याय भी आ गए। योग व्यापक चीज है।
योग यानी जोड़ने वाला। मोक्ष से जोड़ने वाला सारा व्यापार, सारी प्रवृत्ति, धर्म की साधना योग है। आसन-प्राणायाम के साथ यम-नियम भी योग है। जीवन की दिनचर्या में योग साधना के लिए भी समय निकालें। ध्यान का प्रयोग करवाए। श्‍वास के साथ णमो सिद्धाणं को जोड़ दें। हम जीवन में योग की साधना करें तो मोक्ष से जुड़ सकते हैं।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि सत्कार्य में व्यस्त आदमी को दु:खी होने का समय ही नहीं मिलता है।