आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

 

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

ध्यान की भूमिका

सत्य अहिंसा ब्रह्मव्रत, विमल अचौर्य उदार।
अपरिग्रह की भावना, हो निश्छल व्यवहार॥
अणुव्रत के आदर्श में व्यसन-मुक्‍ति अनिवार्य।
सात्त्विक चर्या सहजता, कोमलता औदार्य।
अहंकार ममकार भी जब हो जाए चूर्ण।
पूर्व-भूमिका ध्यान की, तब हो जाए पूर्ण॥

प्रश्‍न : अस्तित्व की जिज्ञासा ध्यान-साधना का आदि-बिंदु है, क्या इस जिज्ञासा का समाधान ही पर्याप्त है या ध्यान की विभिन्‍न भूमिकाओं में प्रवेश पाने के लिए और भी कोई साधना जरूरी है?
उत्तर : ध्यान के लिए सबसे अधिक आवश्यक तत्त्व है चित्त की निर्मलता। व्रतों की साधना के बिना चैतसिक निर्मलता अधिगत नहीं हो सकती। व्रतों की दो भूमिकाएँ हैंमहाव्रत और अणुव्रत। व्रत अपने-आपमें महान ही होता है। वह महान और अणु के भेद से विभक्‍त नहीं होता। पर व्रत की अनुपालना करने वाले व्यक्‍ति की क्षमता के आधार पर वह भी विभाजित हो जाता है। मुख्य रूप से व्रतों के पाँच भेद हैंअहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। अहिंसा की साधना का अर्थ है राग और द्वेष की मुक्‍ति का क्षण। अहिंसा का फलित है समग्र विश्‍व के साथ मैत्री का अनुभव। राग-द्वेष की मुक्‍ति से वीतरागता की ओर प्रयाण होता है और मैत्री की भावना से विश्‍वात्मा के साथ तादात्म्य की अनुभूति बढ़ती है। वीतरागता की भावना और मैत्री-भावना से चित्त की निर्मलता जितनी बढ़ती है, ध्यान की स्थिति भी उतनी सुद‍ृढ़ होती जाती है।
सत्य ॠजुता का प्रतीक है। जो साधक ॠजु होता है, वह मलों का संचय नहीं करता। असत्य-भाषण से चित्त कलुषित होता है। असत्य बोलने वाला भयभीत रहता है। संभावित अनिष्ट से अपना बचाव करने के लिए वह माया का जाल बिछाता है। जब उसकी माया का पता लग जाता है, तब वह उत्तेजित हो उठता है। उत्तेजना से वैर बढ़ता है और व्यक्‍ति का अपयश होता है। भय, क्रोध और माया को असत्य से अलग नहीं किया जा सकता। ये सब वृत्तियाँ जहाँ पुष्ट रहती हैं, वहाँ चित्त की निर्मलता संभव नहीं है। निर्मलता के अभाव में ध्यान का बीज अंकुरित नहीं हो सकता।
तीसरा व्रत हैअस्तेय। स्तेय का अर्थ हैचोरी। चोरी असंयम की परिणति है। चोरी करने वाला दूसरों के स्वत्व का अपहरण करता है। यह एक प्रकार का क्रूर कर्म है। इसमें संलग्न व्यक्‍ति कभी आत्मस्थ नहीं हो सकता। उसकी द‍ृष्टि पदार्थपरक रहती है। पदार्थ-जगत में जीने वाला व्यक्‍ति चित्त की निर्मलता के बारे में सोच ही नहीं सकता। अस्तेय व्रत का आराधक पदार्थ-जगत से विरत हो जाता है, अत: वह चैतसिक निर्मलता की दिशा में गति कर लेता है।
चौथा व्रत हैब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य आत्मानुभूति की साधना है। यह शक्‍ति का अक्षय ोत है। यह एक प्रकार का विशिष्ट तप है। इसकी साधना करने वाला साधक शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की शक्‍तियों को सुरक्षित रखता हुआ तेजस्वी बन जाता है। ब्रह्मचर्य का साधक अपनी वृत्तियों को उच्छृंखल नहीं होने देता। इसके विपरीत अब्रह्मचर्य वासना को उच्छृंखल बनाता है और आत्मोन्मुखता के मार्ग में बाधा उपस्थित करता है। आत्मानुभूति और शक्‍ति-संरक्षण इन द‍ृष्टियों से ब्रह्मचर्य की साधना ध्यान साधना की पृष्ठभूमि में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है।
पाँचवाँ व्रत हैअपरिग्रह। अपरिग्रह का फलित हैअमूर्च्छा। मूर्च्छा आसक्‍ति है। आसक्‍त चित्त अंतुर्मखी नहीं बन सकता। शरीर और पदार्थ दोनों के प्रति उसका ममत्व रहता है। ममत्व की परतें जितनी सघन होती हैं, निर्मलता पर उतना ही सघन आवरण रहता है। उन परतों को तोड़ने के लिए अपरिग्रह व्रत की भावना का अभ्यास करना जरूरी है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहये चित्त की निर्मलता के साधन हैं, इसलिए इन्हें मूल गुण कहा जाता है। इनकी सुद‍ृढ़ता के आधार पर ही ध्यान का विकास हो सकता है। जिस व्यक्‍ति का व्यवहार निश्छल नहीं होता, वह ध्यान का अधिकारी नहीं हो सकता। महाव्रत या अणुव्रत की साधना के बिना व्यवहार निश्छल नहीं हो सकता। हिंसा, असत्य, चोरी, काम और परिग्रहये सब छलना को बढ़ाने वाले हैं। छलना की सिद्धि में ध्यान की भूमिका प्रशस्त नहीं हो सकती, इसलिए एक ध्यान-साधना के जीवन में व्रतों की आराधना का भी अपना मूल्य है।
प्रश्‍न : आध्यात्मिक वातावरण में रहने पर भी व्यक्‍ति के मन में हिंसा, असत्य आदि दुष्प्रवृत्तियों का आकर्षण क्यों रहता है? कई साधक चाहने पर भी इन वृत्तियों से मुक्‍त नहीं हो पाते, इसका क्या कारण है?
उत्तर : असत् वृत्ति का सबसे बड़ा कारण हैसंस्कार। संस्कार के साथ चिरकालीन अभ्यास उस वृत्ति को पुष्ट कर देता है। संस्कार और अभ्यास के योग से व्यक्‍ति हिंसा की ओर उन्मुख होता है। संस्कारों का विपाक होने पर वे उदीर्ण होते हैं। इसमें निमित्त कारण बहुत काम करते हैं। केवल कर्म से हिंसा नहीं होती। निमित्तों की प्रबलता से मनोवृत्ति हिंसक बनती है। जिस देश और काल में हिंसा के उद्दीपन कारण प्रबल होते हैं, वहाँ हिंसा को अधिक प्रोत्साहन मिलता है। उत्तेजक कारण कम होते हैं तो कर्मों का विपाक भी कम होता है। यौगलिक युग में हिंसा, असत्य आदि को उभारने वाले कारण नहीं के बराबर थे, इसलिए मनुष्य की वृत्तियाँ भी इतनी कलुषित नहीं होती थीं। वर्तमान परिस्थितियों में सुबह से शाम तक हिंसा का उद्दीपन वातावरण है। समाचार-पत्रों में चोरी, डकैती, मारकाट और बलात्कार के संवाद पढ़ने को मिलते हैं। ऐसी ही घटनाएँ लोग देखते और सुनते हैं। ये बाह्य कारण हैं। शरीर को प्राप्त होने वाला भोजन, शरीर के रासायनिक ाव आदि आंतरिक कारणों में भी असत् का प्रभाव रहता है। साधक जब बाह्य और आंतरिक दोनों ओर के असत् प्रभावों से मुक्‍त होने का प्रयत्न करेगा, तभी वह अपनी वृत्तियों का उदात्तीकरण करने में सफल हो सकता है। (क्रमश:)