जैन शासन में तीर्थंकर अध्यात्म के अधिकृत व्यक्‍ति होते हैं : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जैन शासन में तीर्थंकर अध्यात्म के अधिकृत व्यक्‍ति होते हैं : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 16 अगस्त, 2021
श्रावण शुक्ला अष्टमी, भगवान पार्श्‍व का मोक्ष कल्याण दिवस। परमात्मा प्रभु पार्श्‍व की स्तुति कर हम आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हों। भारतीय ॠषि परंपरा के महर्षि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में अध्यात्म और भौतिकता दोनों विद्यमान है और ऐसा लगता है कि ये दोनों हमेशा थी, है और हमेशा रहेगी।
आध्यात्मिकता और भौतिकता दोनों का कुछ अंशों में समावेश पुण्य के रूप में देखना हो तो तीर्थंकरों को देखा जा सकता है।
तीर्थंकर एक ऐसा व्यक्‍तित्व होता है, जिसमें शिखर की तो अध्यात्म की निष्पत्ति होती है और तीर्थंकर होने के कारण पुण्यवत्ता भी विशिष्टता को लिए हुए होती है। पुण्य और धर्म इन दोनों के संगम पुरुष मानो तीर्थंकर होते हैं। चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव को देखें, पुण्यवत्ता तो मिल जाए पर धर्म का वह उत्कर्ष उस पद की अवस्था में देखने को नहीं मिलता।
कोई-कोई तीर्थंकर अपने जीवन काल में चक्रवर्ती बन जाते हैं, फिर तीर्थंकर बन जाते हैं। परंतु चक्रवर्ती है, उस समय तीर्थंकर नहीं है और तीर्थंकर है, उस समय भौतिक चक्रवर्ती नहीं रहते। सोलहवें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ इसके उदाहरण हैं। उनकी पुण्यवत्ता और प्रखरता को लिए हुए थी।
ऐसा लगता है दुनिया में तीर्थंकर से बड़ा अध्यात्म का अधिकृत व्यक्‍ति दूसरा उनसे बड़ा संभवत: नहीं मिलता होगा। जैन शासन में तीर्थंकर अध्यात्म के अधिकृत व्यक्‍ति होते हैं। आचार्य तुलसी भले 22 वर्ष के थे, पर धर्मसंघ के अधिकृत व्यक्‍ति वे ही बने थे, हालाँकि उनसे बड़े उम्र व ज्ञान में और भी संत रहे होंगे। दीक्षा पर्याय में बड़े रहे होंगे।
ठाणं आगम के नवें अध्याय के 60वें सूत्र में बात बताई गई है कि श्रमण भगवान जो इस जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र के वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर थे। उनके तीर्थ के नौ जीवों ने तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म अर्जित किया था। वे हैंश्रेणिक, सुपार्श्‍व, उदायी, पोट्टिल अणगार, द‍ृढ़ायू, श्रावक शंख श्रावक शतक, श्राविका सुलसा और श्राविका रेवती। इन नौं नामों में देखता हूँ साधु से श्रावक आगे चले गए।
ये नौं जीव आगे इसी भूमि, हमारे भरत क्षेत्र में आगामी तीर्थंकर बनेंगे। श्रेणिक-आगे पद्मनाभ नाम से प्रथम तीर्थंकर, सुपार्श्‍व-सूरदेव नाम के दूसरे तीर्थंकर, उदायी-सुपार्श्‍व नाम के तीसरे तीर्थंकर, पोट्टिल-स्वयंप्रभ नाम के चौथे तीर्थंकर, द‍ृढ़ायू-सर्वानुभूति नाम के पाँचवें तीर्थंकर, शंख-उदय नाम के सातवें तीर्थंकर, शतक-शतकीर्ति नाम के दसवें तीर्थंकर, सुलसा-निर्ममत्व नाम के पंद्रहवें तीर्थंकर। ये आठों आगामी उत्सर्पिणी काल में आगामी चौबीसी में तीर्थंकर होंगे।
प्रश्‍न है इस सूत्र में नाम गौत्र कर्म शब्द आया है। तो नाम कर्म और गौत्र कर्म दोनों है क्या? एक जन्म के अंतराल से पहले ही तीर्थंकर नाम गौत्र कर्म का अर्जन कर लिया। तीर्थंकर बनेगा तो मनुष्य ही तो साथ में मनुष्य जन्म का भी बंध हो गया। आयुष्य का बंध एक जन्म के अंतराल से पहले ही हो गया कि वह मनुष्य बनेगा या नरक गति में मनुष्य का बंध होगा, यह एक प्रश्‍न है। चिंतन की बात है।
इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि गृहस्थ जीवन में भी बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है। गृहस्थ भी एक जन्म बाद तीर्थंकर बनने वाला बन सकता है। कैसी आत्मा की विधिवत्ता है। साधु को जो सफलता नहीं मिलती, गृहस्थ को मिल सकती है।
राजा श्रेणिक की बात को हम देखें एक ओर क्षायिक सम्यक्त्व वाला, आगामी हमारा प्रथम तीर्थंकर बनने वाला। भगवान महावीर के सद‍ृश। उतना ही आयुष्य सब हू-ब-हू। दुनिया का महान व्यक्‍तित्व बनने वाला आज तो पहली नरक में विद्यमान है। कर्मवाद में कितनी निष्पक्षता है। न्यायालय में सब बराबर है। फल सबको भोगना पड़ेगा। जहाँ हिंसा है, निष्ठुरता है, तो कर्म का फल भोगना है।
नाम मात्र से कोई जिन नहीं है, स्थापना में तीर्थंकर वंदनीय है। तीर्थंकर का जन्म हो गया, उसी भव में तीर्थंकर बनने वाले हैं, पर वंदनीय नहीं है। भाव तीर्थंकर वंदनीय है। जो समवशरण में विराजमान है।
सुपार्श्‍व भगवान महावीर के चाचा थे। उदायी राजा कोणिक का पुत्र था। पोट्टिल द‍ृढ़ायू, शंख, शतक भी तीर्थंकर बनने वाले हैं। सुलसा श्राविका जिसकी देव परिषद में प्रशंसा हो गई थी। देव ने परीक्षा की। सुलसा द‍ृढ़ समत्व वाली श्राविका थी। रेवती श्राविका भी भगवान महावीर के स्वास्थ्य में सहयोग देने वाली थी। इस तरह भगवान महावीर के समय के नौ जीवों के तीर्थंकर नाम गौत्र कर्म बंध की बात बताई है।
कन्या मंडल अधिवेशन का शुभारंभ
इस प्रसंग पर पूज्यप्रवर ने फरमाया कि हमारे तेरापंथ श्रावक समाज की जो कन्याएँ हैं, उनके संदर्भ में अपनी बात विशेषतया बताने जा रहा हूँ। कन्या मंडल अभातेममं के अंतर्गत है, यह सुंदर बात है। पथदर्शन प्रशिक्षण पाने का सुंदर मौका मिल सकता है। पथ से विचलित होने से बचने का मौका मिल सकता है। उनको विकास का भी अच्छा मौका मिल सकता है।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी ने कहा कि यह सतरहवाँ अधिवेशन है। कन्याओं ने अच्छा विकास किया है। इस अधिवेशन की थीम हैम्टव्स् स्थायी विकास। गहराई से सोचकर आगे बढ़ना है। जो प्रगतियाँ की हैं, वो उल्लेखनीय है और विकास करना है। तेरापंथ समाज की कन्याएँ शिक्षा के क्षेत्र में उत्तरोत्तर आगे बढ़ रही हैं। साथ में कन्याओं को इस बात पर ध्यान देना है कि उनका आध्यात्मिक विकास हो। धार्मिक द‍ृष्टि और तत्त्व-दर्शन की द‍ृष्टि से विकास हो। वे तेरापंथ दर्शन को अच्छी तरह समझ सके।
कार्यक्रम के प्रारंभ में भीलवाड़ा कन्या मंडल ने म्टव्स् थीम गीत की प्रस्तुति दी। अभातेममं की अध्यक्षता पुष्पा बैद ने अपनी बात रखते हुए श्राविका गौरव अलंकरण के लिए सौभाग देवी बैद-जयपुर एवं ललिता धारीवाल-रायपुर के नाम की घोषणा की। सीता देवी श्राविका प्रतिभा पुरस्कार के लिए खुशबू घोषल-कोयंबटूर, सोनल पीपाड़ा-बैंगलोर, राखी बैद-गंगाशहर, मंजु बेताला-पटना के नाम की घोषणा की।
मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में मुख्य नियोजिका जी ने बंधन मुक्‍ति के बारे में समझाया। सम्यक्त्व के लक्षणों के बारे में बताया कि हमारी श्रद्धा के संस्कार मजबूत हों। संवेग के कारण धर्म के प्रति अनुत्तर श्रद्धा प्राप्त हो जाती है, मोक्ष मार्ग प्रशस्त हो जाता है। संवेग सम्यक्त्व के लिए बीज का कारण बनता है।
साध्वीवर्या जी ने सुमधुर गीत ‘जो अंतर में ही रमण करें---’ का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।