प्रवचन करने से निर्जरा व परोपकार दोनों होते हैं : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

प्रवचन करने से निर्जरा व परोपकार दोनों होते हैं : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 17 अगस्त, 2021
अर्हत् वाङ्मय के उद्गाता, आचार्यश्री महाश्रमण जी ने फरमाया कि दुनिया में तीर्थंकर बनने का क्रम चलता रहता है। ऐसा कोई समय नहीं होता जब दुनिया में कोई भी तीर्थंकर न हो। तीर्थंकर भी 1-2 ही नहीं कम से कम जघन्य रूपेण 20 तीर्थंकर तो होते ही हैं। ज्यादा से ज्यादा एक साथ 170 तीर्थंकर दुनिया में हो सकते हैं।
प्रत्येक भरत-ऐरावत क्षेत्र में 24-24 तीर्थंकर प्रत्येक अवसर्पिणी काल में और उत्सर्पिणी काल में होते हैं। पाँच भरत क्षेत्र, पाँच ऐरावत क्षेत्र हैं। महाविदेह क्षेत्र में तो कम से कम 20 तीर्थंकर रहते ही हैं।
इस सूत्र में शास्त्रकार ने बताया है कि आगामी उत्सर्पिणी काल में होने वाले तीर्थंकरों के बारे में बताया है। अवसर्पिणी काल में ह्रास होता है, उत्सर्पिणी काल में उन्‍नति होती है। प्रत्येक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल में छ:-छ: अर होते हैं। एक कालचक्र में 12 अर हो जाते हैं।
अवसर्पिणी काल के प्रथम अर के मनुष्यों की आयु 3 पल्योपम की, दूसरे में 2 पल्योपम, तीसरे में एक पल्योपम यों करते-करते पाँचवें आरे में 100-125 वर्ष की आयु रहती है। पाँचवें के अंत में 20 वर्ष छठे में 16 वर्ष का आयुष्य होता है। अवगाहना भी 3 कोस से करते-करते छठे में तो लगभग एक हाथ रह जाती है। उत्सर्पिणी काल आता है, तब इससे उल्टा होता है। विकास का क्रम रहता है। सुख-दु:ख का भी विकास-ह्रास होता रहता है।
बारह अरों को समझाने का बड़ा सुंदर तरीका हैघड़ी। अवसर्पिणी काल एक से छ: अंक छ: अर है। उत्सर्पिणी काल के 7 से 12 छ: अंक छ: अर हैं। घड़ी कालचक्र का ही प्रारूप है।
यहाँ शास्त्रकार ने आगामी उत्सर्पिणी काल की बात बताई है। यहाँ नौ व्यक्‍तियों का उल्लेख है कि ये नौ व्यक्‍ति आगामी तीर्थंकर होने वाले हैं। इनके नाम हैंवासुदेव कृष्णा, बलदेव राम, उदकपेढ़ालपुत्र, पोट्टिल, गृहपति शतक, निर्ग्रन्थ दारूक, निग्रंथी पुत्र सत्यकी, अम्मड़ परिव्राजक, आर्या सुपार्श्‍वा। ये तीर्थंकर बन सिद्ध-मुक्‍त बनेंगे। ये चातर्याम धर्म की प्ररूपणा कर जन-कल्याण का काम करेंगे।
तीर्थंकर तारणहार होते हैं। वे स्वयं तरते हैं और दूसरों को तारने का काम भी करते हैं। केवली मौन होकर बैठ सकते हैं, पर तीर्थंकर मौन होकर नहीं बैठते, प्रवचन देकर जन-कल्याण करते हैं। भगवान महावीर ने लगभग 30 वर्षों तक जनोद्धार का काम किया। दायित्व का निर्वाह किया।
तीर्थंकरों की जीवों के प्रति मानो दया है, उपकार है, इसलिए वे प्रवचन करते हैं। इस व्याख्यान-प्रवचन का बड़ा लाभ होता है कि सुनने वालों को बहुत उपकृत होने का मौका मिल सकता है। व्याख्यान देने में साधु आलस्य न करे। श्रम का चिंतन न करें। हितोपदेश करने वाला व्यक्‍ति है, वो स्वयं पर भी अनुग्रह करता है और दूसरों पर भी अनुग्रह करता है।
प्रवचन सुनने के साथ सामायिक होती है। शुभ योग के साथ निर्जरा भी हो सकती है, आध्यात्मिक लाभ मिल सकता है। अनेक तात्त्विक जानकारियाँ मिल सकती हैं। जीवन की समस्या का समाधान हो सकता है। प्रवचन को ग्राहक बुद्धि से सुनें तो व्याख्यान देने की कला का भी विकास हो सकता है। हम तीर्थंकरों से ये प्रेरणा लें कि हम व्याख्यान देने में आलस्य न करें। निर्जरा और परोपकार की स्थिति से अनुगृहीत होते रहें, यह काम्य है।
माणक महिमा का विवेचन करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि अब माणक गणी का सरदारशहर में पदारोहण हो गया। अब वे जनपद विहार कर रहे हैं। वि0सं0 1950 का प्रथम पावस प्रवास सरदारशहर में किया। सरदारशहर प्रवास बाद हरियाणा के नोहर सरसा भादरा क्षेत्र में पधारे। हिसार पधारे। प्रथम मर्यादा महोत्सव हांसी में किया। स्थानकवासी संतों से मुनि कालू जी छापर से मिलना चर्चा का प्रसंग समझाया।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
मुख्य नियोजिका जी ने पदार्थ के स्वरूप को विस्तार से समझाया। जैसे-जैसे व्यक्‍ति तत्त्व को समझने लगता है, वैसे-वैसे उसका चिंतन बदल जाता है। वे विषय और पदार्थ में उलझते नहीं हैं, सिर्फ जीवन निर्वाह के लिए उसका उपयोग करते हैं।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में व्यवस्था समिति से लक्ष्मीलाल सिरोहिया, प्रदीप आंचलिया, संतोष सिंघवी, शौर्य रांका, ज्ञानशाला प्रशिक्षिकों ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि पूज्यप्रवर के पास अखूट अमृत है और वे हमें बाँट रहे हैं।