उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य भद्रबाहु (प्रथम)

आर्य स्थूलभद्र ने पुन: नम्र निवेदन किया‘प्रभो! पूर्वज्ञान का विच्छेद होने वाला है, परंतु मैं सोचता हूँ कि श्रुत-विच्छिन्‍नता का निमित्त मैं न बनूँ अत: पुन: प्रणति पूर्वक आपसे वाचना प्रदानार्थ आग्रहभरी नम्र विनती कर रहा हूँ।’
आचार्य स्थूलभद्र को वाचना प्रदान की स्वीकृति करने हेतु सकल संघ ने बार-बार आचार्य भद्रबाहु के सामने विनती की।
सबकी भावना सुनने के बाद समाधान के स्वर में दूरदर्शी आचार्य भद्रबाहु बोले‘गुणमंडित, अखंडित आचारनिधिसंपन्‍न मुनिजनो! मैं आर्य स्थूलभद्र की भूल के कारण ही वाचना देना स्थगित नहीं कर रहा हूँ। वाचना न देने का कारण और भी है। वह यह हैमगध की रूपसी कोशा गणिका के बाहुपाश को तोड़ देने वाला एवं अमात्य-पद के आमंत्रण को ठुकरा देने वाला आर्य स्थूलभद्र श्रमण-समुदाय में अद्वितीय है। वह योग्य है। इसकी शीघ्रगा्रही प्रतिभा के समान अभी कोई दूसरी प्रतिभा नहीं है। इसके प्रमाद को देखकर मुझे अनुभूत हुआ कि समुद्र भी मर्यादा का अतिक्रमण करने लगा है। उच्च कुलोत्पन्‍न, पुरुषों में अनन्य, श्रमण-समाज का भूषण, धीर, गंभीर, द‍ृढ़ मनोबली, परम विरक्‍त आर्य स्थूलभद्र जैसे व्यक्‍ति को भी ज्ञान-मद आक्रांत करने में सफल हो गया है। आगे इससे भी मंदसत्त्व साधक होंगे। अत: पात्रता के अभाव में ज्ञानदान की आशातना है। भविष्य में अवशिष्ट वाचना प्रदान करने के किसी प्रकार के लाभ की संभावना नहीं है। साथ ही वाचना को स्थगित करने से आर्य स्थूलभद्र को अपने प्रमाद का दंड मिलेगा और भविष्य में श्रमणों के लिए उचित मार्गदर्शन होगा।’
आर्य स्थूलभद्र ने पुन: अपनी भावना श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा‘मैं पररूप का निर्माण कभी नहीं करूँगा। आप कृपा करके अवशिष्ट चार पूर्वों का ज्ञान देकर मेरी इच्छा पूर्ण करें।’
आर्य स्थूलभद्र के अत्यंत आग्रह पर आचार्य भद्रबाहु ने उन्हें चार पूर्वों का ज्ञान अपवाद के साथ प्रदान किया। आर्य स्थूलभद्र को आचार्य भद्रबाहु से दश पूर्वों का ज्ञान अर्थसहित एवं अवशिष्ट चार पूर्वों का ज्ञान शब्दश: प्राप्त हुआ।
आचार्य भद्रबाहु पैंतालीस वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे। उनका सोलह वर्ष तक सामान्य अवस्था में साधु-पर्याय पालन एवं चौदह वर्ष तक युगप्रधान पद वहन का काल था। उनकी सर्वायु छिहत्तर वर्ष की थी। बारह वर्ष तक उन्होंने महाप्राण ध्यान की साधना की थी।
जिनशासन को सफल नेतृत्व एवं श्रुतसंपदा का अमूल्य अनुदान देकर श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु वीर निर्वाण 170 (वि0पू0 300) में स्वर्ग को प्राप्त हुए।
उन्हीं के साथ अर्थ वाचना की द‍ृष्टि से श्रुतकेवली का विच्छेद हो गया।

आचार्य स्थूलभद्र

कामविजेता आचार्य स्थूलभद्र को श्‍वेतांबर परंपरा में अत्यंत गौरवमय स्थान प्राप्त हुआ है। वे तीर्थंकर महावीर के आठवें पट्टधर थे। श्रुतधर परंपरा के वे अंतिम श्रुतकेवली थे। दुष्काल के आघात से टूटती श्रुत-शृंखला को सुरक्षित रखने का एकमात्र श्रेय महास्थविर योगी आचार्य स्थूलभद्र की सुतीक्ष्ण प्रतिभा को है। आचार्य स्थूलभद्र के लिए श्‍वेतांबर परंपरा का प्रसिद्ध श्‍लोक है
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमप्रभु:।
मंगलं स्थूलभद्राद्या, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥
मंगलकारक तीर्थंकरदेव वीर प्रभु और गणधर इंद्रभूति गौतम के बाद आचार्य स्थूलभद्र के नाम का स्मरण उनके विशिष्ट व्यक्‍तित्व का सूचक है।