दुनिया में जन्म-मरण का चक्र सतत चलता है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

दुनिया में जन्म-मरण का चक्र सतत चलता है : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 19 अगस्त, 2021
महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने ठाणं आगम के दसवें अध्याय की विवेचना करते हुए फरमाया कि इस दसवें अध्ययन में 10-10 की कई बातें उल्लिखित की गई हैं। प्रथम सूत्र में पहली बात लोक स्थिति के बारे में बताई गई है।
आकाश के दो विभाग हैंलोकाकाश-अलोकाकाश, आकाश अपने आपमें अनंत है, अनादि है, एकाकार है। आकाश का कोई ओर-छोर नहीं होता। परिस्थिति के संदर्भ में आकाश के विभाग भी किए जा सकते हैं। आकाश और धरती को अलग-अलग संदर्भ में बाँटा जा सकता है। विभाजन की कहीं-कहीं उपयोगिता भी होती है।
लोक-अलोक में छोटा लोक है। अलोकाकाश तो अनंत है। उसमें छोटा सा टापू की तरह लोक है। लोकाकाश इसलिए है कि इसमें जीव-पुद्गल दिखाई देते हैं। और भी द्रव्य हैं। विभाजन का आधार है, षड्-द्रव्यात्मक। आकाश के जिस भाग में छहों द्रव्य होते हैं, वह लोकाकाश है। जहाँ केवल आकाश है और कोई द्रव्य नहीं है, वह अलोकाकाश है।
यहाँ शास्त्रकार ने दस बातें लोक स्थिति की बताई है। लोक का स्वभाव कैसा है। लोक में सब स्वाभाविक है, उसका अपना स्वभाव है। लोक का पहला स्वभाव है कि यहाँ जीव बार-बार मरते हैं और वहीं लोक में बार-बार प्रत्युत्पन्‍न होते हैं। यह एक प्रकृति है कि जीव की मृत्यु होती है। कोई प्राणी स्थायी नहीं है। तीर्थंकरों का भी शरीर एक दिन छूटता है। सब प्राणी अस्थायी हैं, अमर कोई नहीं है। केवल मृत्यु नहीं है, संसारी अवस्था में जन्म भी होता है।
लोक का दूसरा स्वभाव है कि जीवों के पाप कर्म का बंध होता है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बंध संसारी अवस्था में होता है। शुभ योग में लगे हुए हैं, उनके भी पाप कर्म का बंध भीतर में हो रहा है। तीसरी बात हैजीवों के प्रतिक्षण, सदा मोहनीय पाप-कर्म का बंध होता है। मोहनीय कर्म पाप कर्मों में सेनापति है।
चौथी बात बताई है कि ऐसा कभी न तो अतीत में हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा कि जीव-अजीव बन जाए और अजीव जीव बन जाए। पाँचवीं बात है कि ऐसा कभी न हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि त्रस जीवों का व्यवच्छेद हो जाए, सब जीव स्थावर हो जाए। स्थावर जीवों का व्यवच्छेद हो जाए और सब जीव त्रस बन जाएँ। दुनिया में हमेशा स्थावर और त्रस प्राणी रहते हैं। दोनों का अस्तित्व हमेशा रहता है।
छठी बात है कि ऐसा कभी नहीं होता है कि लोक अलोक बन जाए या अलोक लोक हो जाए। सातवीं स्थिति है कि ऐसा भी कभी नहीं होता कि लोक अलोक प्रविष्ट हो जाए या अलोक लोक में प्रविष्ट हो
जाए। आठवीं व्यवस्था है कि जहाँ लोक है, वहाँ जीव है और जहाँ जीव है, वहीं लोक है। नौवीं व्यवस्था है जहाँ जीव और पुद्गलों की गति पर्याय है, वहाँ लोक है, जहाँ लोक है वहाँ जीव और पुद्गलों का गति पर्याय है।
दसवीं व्यवस्था हैसमस्त लोकांतों के पुद्गल दूसरे रूक्ष पुद्गलों के द्वारा, अबद्ध पार्श्‍व स्पृष्ट (अबद्ध और अस्पृष्ट) होने पर भी लोकांत के स्वभाव से रूक्ष हो जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकांत से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते। जीव और पुद्गल लोक की सीमा में ही रहेंगे, लोक से बाहर नहीं जाएँगे। यह सृष्टि की व्यवस्था बताने वाला सूत्र है।
मुनि चिरंजीलाल जी का प्रसंग विस्तार से समझाया।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। पूज्यप्रवर ने सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण करवाई।
मुख्य नियोजिका जी ने फरमाया कि जहाँ प्रेम है, वहाँ प्रसन्‍नता और सफलता भी होती है। वहाँ का वातावरण भी मधुर होता है। पारिवारिक सदस्यों में सौहार्द हो। परिवार में धैर्य का विकास हो।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में नरेश नाहटा, ओम कोठारी, एन0एस0 राजपुरोहित जो जनरल मेजर हैं, उषा शिशोदिया, प्रज्ञ खांटेड़, मुदित बड़ोला ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
पूज्यप्रवर ने मेजर जनरल राजपुरोहित जी को संबोधन देते हुए फरमाया कि भारत में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा बनी रहे, आध्यात्मिकता का क्रम भी भारत में चलता रहे। भारत में खूब शांति रहे। मैत्री-सौहार्द का भाव रहे।
व्यवस्था समिति द्वारा मेजर साहब का साहित्य से सम्मान किया गया।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।