आदमी को ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आदमी को ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 12 अगस्त, 2021
शांतिदूत महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारे जीवन में ज्ञान का बहुत महत्त्व है। आदमी को जितना संभव हो, समय आदि की अनुकूलता हो, परिस्थितियों की भी अनुकूलता हो तो ज्ञान-विकास का प्रयास करना चाहिए।
शास्त्रकार ने यहाँ बताया हैनैपुणिक वस्तु (पुरुष) नौ है। निपुण का मतलब है, सूक्ष्म ज्ञान। ज्ञान सतही भी होता है, उसका अपना महत्त्व है। पर ज्ञान की गहराई में जो जाता है, ज्ञान की सूक्ष्म स्थिति का साक्षात्कार करता है, उसका अलग महत्त्व होता है।
जिस किसी विषय का भी आदमी अध्ययन करता है, उसकी गहराई में पैठने का प्रयास हो, फिर जो कुछ मिलता है, वह विशेष हो सकता है। ज्ञान का विकास करने के लिए आदमी में ज्ञान के प्रति समर्पण का भाव आना चाहिए। ज्ञान के प्रति निष्ठा हो, समर्पण हो, आकर्षण हो यह स्थिति मन की बननी चाहिए।
दूसरी बात हैज्ञान प्राप्ति का प्रयास-पुरुषार्थ करना चाहिए। ज्ञान के लिए समय का भी नियोजन कर सके। तीसरी बात है कि ज्ञान और ज्ञानदाता है, उसके प्रति सम्मान विनय का भाव हो। ज्ञान, ज्ञानी व्यक्‍ति और ज्ञानदाता के प्रति सम्मान का भाव हो। ये तीनों बातें जीवन में आ जाती हैं, तो व्यक्‍ति कुछ ज्ञान की दिशा में आगे बढ़ सकता है। प्रतिभा प्रखर है, तो और बड़ा सहयोग उसके मिल जाता है। आदमी ज्ञान की ऊँची अवस्था को, वैदुष्य की शिखर अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
यहाँ शास्त्रकार ने नैपुणिक शब्द को काम में लिया है। निपुण यानी सूक्ष्म ज्ञान। जिसके पास सूक्ष्म ज्ञान होता है, जो सूक्ष्म ज्ञान का धनी होता है, वह व्यक्‍ति नैपुणिक कहलाता है। यहाँ अलग-अलग विषयों के ज्ञाता, नौ पुरुष बताए गए हैं।
ये सूक्ष्म ज्ञान के धारक व्यक्‍ति हैप्रथम हैसंख्यान-गणित को जानने वाला। ज्ञान रूपी वृक्ष की अनेक शाखाएँ हैं। कोई व्यक्‍ति गणित का अच्छा ज्ञान रखने वाला। दूसरानैमित्तिक-निमित्त को जानने वाला। विनय के साथ चित्त की एकाग्रता हो। चंचलता ज्यादा न हो। यह एक प्रसंग से समझाया कि मेघ समान रूप से बरसता है, भाजन कैसा है, उसका फर्क है।
तीसराकायिक-इडा, पिंगला आदि प्राण-तत्त्वों का ज्ञान रखने वाला। चौथा पौराणिक-इतिहास को जानने वाला। पाँचवाँपारिहस्तिक, प्रकृति से ही समस्त कार्यों में दक्ष। छठा-परपंडित-अनेक शास्त्रों को जानने वाला। सातवाँ-वादी-वाद-लब्धि से संपन्‍न। आठवाँ-भूमिकर्म-भस्म लेप या डोरा बाँधकर ज्वर आदि की चिकित्सा करने वाला। नौवाँ-चैकित्सिक-चिकित्सा करने वाला।
ज्ञान के अनेक क्षेत्र हैं, ज्ञान में आगे बढ़ना है तो हम में ज्ञान के प्रति समर्पण, रुझान-रुचि हो और उसके लिए समय निकाल सकें और वैसा पुरुषार्थ कर सकें। ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञानदाता के प्रति सम्मान का भाव हो। विनय भाव हो, सत्य में बुद्धि-प्रज्ञा का ठीक संयोग हो तो आदमी नैपुणिक-सूक्ष्म ज्ञान वाला बन सकता है।
ज्ञान और ज्ञानी की आशातना नहीं, बुद्धि की आशातना नहीं करनी चाहिए। बुद्धि विकास का भाव रखो। बुद्धि अपने आपमें खराब नहीं है, बुद्धिमान आदमी खराब हो सकता है। बुद्धि का दुरुपयोग हो सकता है। बुद्धि का सम्मान करें। ज्ञान के क्षेत्र में आयास-प्रयास करें तो कुछ व्यक्‍ति नैपुणिक बन सकते हैं। सूक्ष्म विषय के विज्ञाता बन सकते हैं।
पूज्यप्रवर ने माणक महिमा का विवेचन करते हुए फरमाया कि माणक युग में 71 संत और 193 साध्वियाँ हैं। श्रावक-श्राविकाएँ अनेक हैं। उनके शासन में सांतरा संत कालूजी स्वामी जैसे हैं। उनको बख्शीष माणकगणी करवाते हैं। मुनि कालूजी सर्जन डॉक्टर जैसे थे। जयाचार्य की आँख का मोतिया का ऑपरेशन किया था। संघ सेवा में जीवन का योगदान दिया।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। बड़ी तपस्या करने वालों को प्रत्याख्यान करवाए। पूज्यप्रवर ने सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण करवाई।
मुख्य नियोजिका जी ने साधना के बाधक तत्त्वों के बारे में बताया। साध्वीवर्याजी ने कहा कि कोई आत्मा हीन नहीं है, पर व्यवहार में हीनता में भेद है। योग्यता कम-अधिक हो सकती है।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में व्यवस्था समिति उपाध्यक्ष संजय मांडोत, महावीर लोढ़ा, व्यवस्था प्रभारी, अशोक बाफणा, बाबूलाल पितलिया, प्रेक्षा झाबक, वनिता संजय भानावत ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।