आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

 

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

जैन विश्‍व भारती

विधिवत उनकी साधना, शिक्षण और प्रयोग।
विश्‍व भारती में सतत चलता सहज सुयोग॥

प्रश्‍न : शिक्षा पद्धति में जीवन-विज्ञान की रूपरेखा क्या है?
उत्तर : जीवन-विज्ञान की कल्पना का आधार हैजीवन का सर्वांगीण विकास। इसमें जीवन के सामान्य व्यवहार से लेकर, चैतन्य-विकास तक कई पड़ाव हैं। उन सारे पड़ावों को पार करने के बाद मंजिल उपलब्ध होती है, जो व्यक्‍ति को जीवन-विज्ञान के रहस्यों से परिचित कराती है। इसमें केवल मस्तिष्कीय विकास पर ही ध्यान केंद्रित नहीं है। इसकी पहुँच मस्तिष्कीय विद्याओं से परे चेतना के विकास तक है। उसके लिए मूलभूत तत्त्व हैशारीरिक संस्थान से परिचय। परिचय के बाद शरीर में स्थित विशिष्ट चैतन्य-केंद्रों के निर्मलीकरण की अपेक्षा है। शरीर-तंत्र का परिचय शरीर शास्त्र से भी हो सकता है, पर उसकी पद्धति भिन्‍न है। वह शारीरिक क्रिया तक ही सीमित रहता है। शरीर शास्त्रीय द‍ृष्टि से अध्ययन करने वाला विद्यार्थी शरीर के आध्यात्मिक उपयोग से अपरिचित रहता है। जब तक शरीर के प्रति आध्यात्मिक द‍ृष्टि निर्मित नहीं होती है, शरीर-स्थित चैतन्य-केंद्रों के निर्मलीकरण की प्रक्रिया ज्ञात नहीं हो सकती। जीवन-विज्ञान की कल्पना में इस विषय का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था सोची गई है।
कोई भी प्रकाश, परदे के हटाए बिना प्रकाश नहीं बन सकता। चेतना की अभिव्यक्‍ति में भी नाड़ी-संस्थान की विशुद्धि या चैतन्य-केंद्रों की निर्मलता निमित्त बनती है। ऐसा हुए बिना, उन्हें विद्युत चुंबकीय क्षेत्र बनाए बिना भीतर का ज्ञान बाहर नहीं जा सकता। निर्मलता चुंबकीय क्षेत्र है। इससे चेतना अधिक प्रकाशित होती है। जीवन-विज्ञान की प्रक्रिया ध्यान-साधना की प्रक्रिया है। इस द‍ृष्टि से ध्यान शिक्षा का अनिवार्य अंग है। ध्यान के बिना न तो व्यक्‍तित्व की परिभाषा ज्ञात हो सकती है और न ही व्यक्‍तित्व-निर्माण के सूत्र हाथ लग सकते हैं।

अस्तित्व की जिज्ञासा

जिज्ञासा अस्तित्व की है पहला सोपान।
हर साधक पहले करे कोऽहं की पहचान॥
कोऽहं कोऽहं में सदा, रहे हृदय बेचैन।
मिले साधना-पथ स्वयं, बेचैनी की देन॥
पथ मिलने के बाद है, यम-नियमों का मूल्य।
बीज-वपन से पूर्व भू-समीकरण के तुल्य॥

प्रश्‍न : सर्वांगीण विकास करने के लिए व्यक्‍ति को अंतर्मुखी बनना जरूरी है। अंतर्मुखी के लिए ध्यान की साधना पर बल दिया जाता है। ध्यान-साधकों के अनुभव विभिन्‍न प्रकार के होते हैं। कुछ साधक बहुत शीघ्र ही अच्छी स्थिति में पहुँच जाते हैं और कुछ साधक बीच में ही भटक जाते हैं। इस भटकन से बचने के लिए साधक को अपनी साधना का प्रारंभ कहाँ से करना चाहिए?
उत्तर : साधना करने की भावना होने पर भी बहुत लोग यह नहीं समझ पाते कि साधना का प्रारंभ कब हो? और कहाँ हो? जब तक साधना का आदि बिंदु हाथ नहीं लगता, तब तक उस क्षेत्र में व्यवस्थित गति नहीं हो सकती। व्यवस्था की द‍ृष्टि से आवश्यक है कि उस संबंध में गहरा ज्ञान हो। ध्यान की दिशा में गति करनी है तो ध्यान के स्वरूप की जानकारी भी कर लेनी चाहिए। ध्यान का अर्थ है एकाग्रता, किंतु केवल एकाग्रता ध्यान का विषय नहीं है। ध्यान के क्षेत्र में एकाग्रता किस विषय की हो? इस तथ्य का बहुत मूल्य है।
एकाग्रता एक निशानेबाज की भी होती है। कोई भी व्याध या शिकारी अपने शिकार पर निशाना साधता है, तब उसे कितना एकाग्र होना पड़ता है। एकाग्र हुए बिना किसी भी निशानेबाज का तीर अपने लक्ष्य को नहीं वेध सकता। बगुले की बकवृत्ति बहुत प्रसिद्ध है। वह मछली पकड़ने के इरादे से अपने एक पाँव को ऊपर उठाकर किसी तपस्वी की भाँति खड़ा होता है। बगुले की उस एकाग्रता से प्रभावित होकर मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम ने लक्ष्मण को संबोधित कर कहा

पश्य लक्ष्मण! पम्पायां बक: परमधार्मिक:।
मन्दं-मन्दं पदं धत्ते जीवानां वधशंकया॥
लक्ष्मण! देखो, इस पम्पा में रहने वाला बगुला भी कितना धार्मिक है। यह जीव-वध की आशंका से कितना संभल-संभलकर कदम टिका रहा है।