साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

              (9)

युग की हर उम्मीद नई हर सपना अभिनव
अनिमिष पलकों से तुमको दिन-रात निहारे
हुआ नाम से ही जादू सारी दुनिया पर
क्या होगा जब देखेगा जग काम तुम्हारे॥

तुमको देखा एक बार वह हुआ तुम्हारा
सदा निकट रहने की जागी चाह सलोनी
पहुँच नहीं पाया जो अब तक द्वार तुम्हारे
इच्छाएँ उस मानव की सब रही अलोनी
उजल गई यह सदी तुम्हारी अभिधा से जुड़
टाँके हैं तुमने इस नभ में नए सितारे॥

मानवता का मीत न तुम-सा देखा हमने
उसके खातिर ही अणुव्रत का दीप जलाया
एक प्यास ले गई तुम्हें सागर के तट तक
बदले युग की धारा यह उद्घोष सुनाया
धर्मक्रांति की लहर अनूठी ले आए तुम
साँसों का संगीत निरंतर तुम्हें पुकारे॥

नई सदी की चौखट पर संसार खड़ा है
मनोभूमि पर बीज निराशा के अँखुआए
उठी आंधियाँ हिंसा की सब ओर भयावह
कौन अहिंसा की सुंदर-सी राग सुनाए
आशा आश्‍वासन विश्‍वास दिलासा हो तुम
इस निरीह मानवता के अब तुम्हीं सहारे॥

नैतिकता हो रही चेतनाशून्य जहाँ में
सूरज बन तुम उदियाए तब मूर्च्छा टूटी
बनी तनावों से बोझिल मासूम जिंदगी
दी तुमने उसको प्रेक्षा संजीवनी-बूटी
नए शिल्प में ढाल सत्य को किया उजागर
तुम्हें देखकर पुलक उठे हैं प्राण हमारे॥

        (10)


आस्था के मंगल दीप जला
साँसों की सरगम पर गाएँ
भावों की वंदनवार सजा
मानस-मंदिर को महकाएँ॥

तुम चित्रकार हो अलबेले
हम चित्र तुम्हारे हाथों के
क्यों असर पड़े कब ही उन पर
वर्षा आतप आघातों के
ये चरण रहें नित गमन-निरत
बन धूलि पंथ में बिछ जाएँ॥

तुम कल्पवृक्ष इस मरुधर में
मानव की चाह सनाथ हुई
इसकी छाया में आते ही
अंधियारी रात प्रभात हुई
तुम क्षीर-समंदर लहराते
बन सिन्धु स्वयं तुमको पाएँ॥

तुम पारस हो इस दुनिया में
पा परस अयस बनता कंचन
तुम सूरज बनकर आंज रहे
आँखों में किरणों का अंजन
तुम शशधर हो निर्मल नभ में
हम नखत सभी दाएँ-बाएँ॥