सब पापों का मूल कारण है राग-द्वेष : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

सब पापों का मूल कारण है राग-द्वेष : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 10 अगस्त, 2021
ज्ञान, दर्शन और चारित्र के परम आराधक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में कहा गया हैशास्त्रकार ने बताया है, पाप के आयतन (स्थान) नौ हैंप्राणातिपात, मृषावाद, अदतादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ।
जैसे पुण्य बंध के नौ कारण बताए गए हैं, पाप बंध के भी नौ कारण बताए गए हैं। हमारे यहाँ अठारह पाप प्रसिद्ध हैं। उनमें से प्रथम नौ पाप का यहाँ उल्लेख किया गया है। अठारह में से नौ का उल्लेख इसलिए है कि यह नौवाँ स्थान है। दूसरा कारण यह है कि नौ के सिवाय और कोई पाप होता ही नहीं। जो कुछ है, वो इन नौ के अंतर्गत समाविष्ट हो सकते हैं। यह एक प्रसंग से समझाया।
माया-मृषा, मृषावाद में आ गया। राग-द्वेष ये मोह-माया में आ गए। कलह क्रोध के बिना कैसे होगा। ये नौ ही अन्य नौ में प्रतिबिंबित मानो एक तरह से हो रहे हैं। एक अपेक्षा से मूल नौ भेद शास्त्रकार ने नौवें स्थान के 26वें सूत्र में प्रदर्शित-प्रकट कर दिए।
ये अठारह के अठारह पाप योग आश्रव के अंतर्गत हैं या इनमें कोई कषाय आश्रव के भी प्रकार आए हैं। ये विद्वत चारित्रात्माएँ मुझे ग्रंथ के आधार पर इस प्रश्‍न का उत्तर दे सकते हैं। इन नौ में भी और गहराई में जाएँ तो पाँच तो कार्य हैं और चार मानो कारण हैं। ये क्रोध, मान, माया, लोभ मूल कारण हैं। इनसे प्राणातिपात, मृषावाद, अदतादान, मैथुन, परिग्रह मानो निष्पन्‍न हो सकते हैं।
नौ में से चार आधार हैं, पाँच आधेय हैं। अगर ये चारक्रोध, मान, माया, लोभ समाप्त हो जाए तो फिर कुछ नहीं बचेगा। आधार नहीं तो फिर आधेय ही नहीं हो सकते। 18 में संक्षेप करें तो पाप 9 है। 9 में और संक्षेप करें तो ये चार हैं। इन चारों में भी संक्षेप करना हो तो कोई कह दे राग-द्वेष।
इन नौ आयतनों में तीन चीजें हैंएक तो प्राणातिपात पाप स्थान, दूसरी है, प्राणातिपात की प्रवृत्ति और तीसरी चीज है, प्राणातिपात पाप-पद। इन तीनों में एक तरह से अतीत, वर्तमान और भविष्य समाया हुआ है। जो पहले से मोहनीय कर्म के अंतर्गत बंधा हुआ है, उसके कारण से जीव प्राणातिपात की प्रवृत्ति करता है। तो प्राणातिपात पापस्थान अतीत से जुड़ा हो जाता है।
वर्तमान में जीव हिंसा कर रहा है, प्रवृत्ति कर रहा है, वह उसका वर्तमान है। उस प्राणातिपात की प्रवृत्ति से जो पाप का बंध होगा, उसका भविष्य में फल मिलने की बात है, यों प्राणातिपात पाप पद भविष्य से जुड़ा हो जाता है। हम अठारह पापों में भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों को भी जोड़ सकते हैं।
इसी प्रकार अठारह पापों को अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ जोड़ सकते हैं। साधु को तो इन नौ स्थानों से विरत रहने का संकल्प है, प्रत्याख्यान है, रहना ही चाहिए। गृहस्थ है वे भी ध्यान दें कि इन पाप के आयतनों से जितना बचा जा सके बचने का प्रयास होना चाहिए। गृहस्थ हिंसा से बचे। जमीकंद अनंतकाय है, इनसे बचें। मांसाहार तो भोजन में न आ जाए। दवाई में भी ध्यान रखें, नॉनवेज न आ जाए। छोटे जीवों की हिंसा से भी बचें। गृहस्थ अहिंसा के मार्ग पर चलने का प्रयास करें। मृषावाद से बचें। चोरी से बचें। गुस्सा न करें, शांति से काम हो सकता है। घमंड भी किस बात का करना। पैसा आज है, कल हो न हो। माया से बचें, व्यवहार में सरलता रखें। लोभ-लालच ज्यादा न करें। गृहस्थ भी इन नौ पाप आयातनों से बचने का प्रयास करें, ताकि आत्मा का कल्याण हो सके, यह काम्य है।
पूज्यप्रवर ने माणक महिमा विवेचन करते हुए फरमाया कि मघवागणी ने खाँसी रुकने पर युवाचार्य को बुलाकर शिक्षाएँ फरमायी। अंतिम रात्रि में युवाचार्यश्री व संघ को शिक्षा फरमा रहे हैं। कुछ समय बाद मघवागणी को एक उबासी आई और देह शांत हो गई। वि0सं0 1949 चैत्र कृष्णा पंचमी का दिन। मध्य रात्रि में संसार से महाप्रयाण हो गया। कालूजी स्वामी ने समय पर चौविहार संथारा पचखाया, मघवागणी श्रद्धा भी चार शरणा सुनाया। शरीर को श्रावकों को संभलवा दिया। लोगस्स का ध्यान किया।
श्रावक कालूराम जम्मड़ व श्रीचंद गधैया ने पहले से सारी तैयारी कर बैकुंठी बना ली थी। सारा समान मँगा लिया था। सुबह श्रावक सामान आपस में लिए मिले। कालूराम ने सारी बात बताई। सारा रहस्य खोला और बैकुंठी को मँगाया गया। 51 खंडी बैकुंठी थी। ये सारा काम श्रीचंद गधैया के यहाँ हुआ था। ठाट-बाट से अंतिम यात्रा निकाली गई। सरदारशहर के पश्‍चिम दिशा मे दाह-संस्कार हुआ।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। पूज्यप्रवर ने 11-11 पर सम्यक्-दीक्षा ग्रहण करवाई।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि सिद्ध जीव अनंत है, उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। राग-द्वेष पुनर्जन्म के हेतु होते हैं, कर्म के बीज हैं, मूल। इंद्रिय सुख तात्कालिक है, क्षणिक है। मोक्ष को सिर्फ मनुष्य प्राप्त कर सकता है और कोई जीव नहीं, मोक्ष के लिए तीव्र पुरुषार्थ करना पड़ता है।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में ॠषि दुगड़, सुशील आच्छा, रजनीश मेहता, प्रकाश बोहरा ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।