राग से विराग की ओर ले जाने वाले ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

राग से विराग की ओर ले जाने वाले ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 11 अगस्त, 2021
जन-जन के उद्धारक, आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में ज्ञान का बड़ा महत्त्व है। ज्ञान अपने आपमें एक शुद्ध तत्त्व होता है। ज्ञान का मतलब है, ज्ञानावरणीय कर्म के विलय से होने वाला तत्त्व।
ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो गया तो फिर केवलज्ञान हो गया, कोई ज्ञान अवशेष ही नहीं रहा। बात है, क्षयोपशम की। क्षयोपशम चार कर्मों का होता हैज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय। शेष चार कर्म जो अघाती हैं, उनका क्षयोपशम नहीं होता।
प्रश्‍न पैदा होता है, क्षयोपशम चार का ही क्यों होता है, शेष चार का क्षयोपशम क्यों नहीं होता? यहाँ ऐसा प्रतीत होता है, क्षयोपशम होने से कुछ उपलब्धि होती है। यह एक बाजोट और धूलि के प्रसंग से समझाया कि धूल उड़ने से बाजेट के कोने दिखाई देने लग जाते हैं। यह बात ज्ञानावरणीय कर्म के संदर्भ में कही गई है। चार कोने प्रथम चार ज्ञान हैं। पूरा बाजोट दिखने लग गया, यह केवलज्ञान के समान हो जाता है।
इस तरह ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से मति, श्रुत अवधि और मन:पर्यव ज्ञान हो सकता है। जब ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है, तो सारा ज्ञान एकाकार हो जाता है, केवलज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम हुआ तो कुछ अंशों में उपलब्धि हो गई। इसी प्रकार मोहनीय और अंतराय कर्म का होता है।
ये चार घाती कर्म ज्यों-ज्यों हल्के पड़ते हैं, त्यों-त्यों कुछ उपलब्धि होती है। कारण गुण तो हमारे भीतर हैं ही। बाजोट की तरह ज्यों-ज्यों कर्मों का आवरण हटता है, तो मूल चीज प्रकट होती चली जाती है। जहाँ उपलब्धि नहीं होती है, वहाँ क्षयोपशम नहीं होता है। बादल हटेंगे तो सूर्य दिखाई देने लगेगा। घाति कर्म आवरण है। अघाती कर्मों का उदय होता है या क्षय होता है। उपशम केवल मोहनीय कर्म का होता है। उदय, क्षय और पारिणायिक भाव तो आठों ही कर्मों का होता है।
यहाँ ठाणं आगम के 27वें सूत्र में बताया गया है कि पापश्रुत-प्रसंग नौ प्रकार के होते हैं। ज्ञान अपने आपमें इस रूप में निर्मल है। अच्छी या बुरी चीज का ज्ञान अपने आपमें खराब नहीं है। नौ तत्त्वों में आदरवा जोग, छोड़वा जोग, जाणवा जोग। जाणवा जोग यानि ज्ञेय तो पाप-आश्रव भी है। ज्ञेय नौ ही तत्त्व है, पर उपादेय नहीं है। हेय भी सब नहीं है। ज्ञेय सब तत्त्व हैं।
संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय है? जान तो लिया पर हेय क्या और उपादेय क्या? यहाँ गड़बड़ न हो। हेय को ग्रहण न करें। उपादेय को छोड़ें नहीं। विपरीत प्रयास न हो। ज्ञान होता तो निर्मल है, पर कौन-सा ग्रंथ पढ़ना, इसमें विवेक होना चाहिए।
पाप श्रुत प्रसंग यानी कौन से ग्रंथ नहीं पढ़ने चाहिए वे हैं(1) उत्पात-प्रकृति विप्लव और राष्ट्र विप्लव का सूचक शास्त्र। (2) निमित्तअतीत वर्तमान और भविष्य को जानने का शास्त्र। (3) मंत्रमंत्र विद्या का प्रतिपादक शास्त्र। (4) आख्यायिका-मातंग विद्या, एक विद्या जिससे अतीत आदि की परोक्ष बातें जानी जा सकती हैं। (5) चिकित्सा-आयुर्वेद आदि। (6) कला-72 कलाओं का प्रतिपादक शास्त्र। (7) आवरण-वास्तु विद्या। (8) अज्ञानलौकिक श्रुत, भरत नाट्य आदि। (9) मिथ्या प्रवचनकुतीर्थिकों के शास्त्र।
ग्रंथों का अपना-अपना महत्त्व है। संदर्भ देखना चाहिए कि किसके लिए ये अपठनीय हैं। किसके लिए उपयोगी हैं। साधु को तो धार्मिक शास्त्र पढ़ने चाहिए। जहाँ सावद्य क्रिया का प्रतिबोध है, वहाँ पाप कर्म बंध हो सकता है। ऐसा ज्ञान करो जिससे तुम राग से विराग की ओर आगे बढ़ सकते हो, श्रेयोंकल्याणों में तुम्हारी अनुरक्‍ति पुष्ट हो जाए। जिससे प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव से तुम्हारी चेतना सुभाषित-सुभावित हो जाए। जिससे तत्त्वों का ज्ञान होता है, ऐसा ज्ञान करो।
पाप श्रुत प्रसंग एक द‍ृष्टि प्रदान करने वाला सूत्र है। जो अध्यात्म के अभाव से युक्‍त है, वे पाप श्रुत की कोटी में आ सकते हैं। साधुओं को इनको पढ़ने से बचना चाहिए। जहाँ लगे उपयोगी है, तो पढ़ा भी जा सकता है। ग्रंथ हाथ पकड़कर किसी के पाप नहीं लगा सकता। तीन शब्द हैंसदुपयोग, अनुपयोग और दुरुपयोग। जो सदुपयोगी हो वो ही पढ़ें। दुरुपयोग को न पढ़ें। इन सबका अंकन कर ग्रंथ पढ़ा जाए तो अच्छी बात हो सकती है।
माणक महिमा की व्याख्या करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि गण को नए आचार्य मिल गए हैं। माणक गणी का पट्टोत्सव चैत्र कृष्णा अष्टमी को आयोजित किया गया। हर्ष से उत्सव आयोजित हो रहा है। चार तीर्थ की उपस्थिति है। सरदारशहर के सौभाग्य हैं। गुरुदेव पट्ट पर आयोजित हुए हैं। संघ द्वारा नई पछेवड़ी ओढ़ाई गई है। गुरु के गुण गाए जा रहे
हैं। गुरुदेव बख्शीशें करवा रहे हैं। माणक गणी, काया कोमल थी, लंबाई अच्छी थी। उनको देशाटन से बहुत प्यार था। उनकी विशेषताएँ बताई गई हैं। मन में नई कल्पनाएँ आ रही हैं।
पूज्यप्रवर ने छोटी-बड़ी तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। साध्वी संवरयशा जी ने 21 की तपस्या के प्रत्याख्यान लिए।
मुख्य नियोजिका जी ने सिद्धों की विशेषताओं के बारे में विस्तार से समझाया। सिद्धों के अनेक पर्यायों के बारे में समझाया।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में मुकेश रांका, संदीप बोरदिया, दिलीप मेहता ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।