दर्शन और ज्ञान का निकटता का संबंध होता है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

दर्शन और ज्ञान का निकटता का संबंध होता है : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 5 अगस्त, 2021
दिव्य दिवाकर, सौम्य सुधाकर, आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आगम में दर्शनावरणीय कर्म के प्रकारों का उल्लेख किया गया है।
जैन दर्शन में कर्मवाद एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है और कर्मवाद के आधार पर फिर साधना, साधुपन, जैसी बात हो सकती है। ज्ञानवरणीय कर्म से पहले दर्शनावरणीय कर्म की चर्चा की है। ठाणं आगम का नौवाँ अध्याय है, यहाँ नौ-नौ बातों का वर्णन आ रहा है।
दर्शन शब्द के छ: अर्थ हो जाते हैं। दर्शन शब्द का पहला अर्थ हैदेखना। दूसरा अर्थ हैदिखाना। प्रदर्शन करना। तीसरा अर्थ हैनैत्र। इसके द्वारा देखा जाता है। चौथा अर्थ हैफिलोसोफी जैसेजैन दर्शन, बौद्ध दर्शन। पाँचवाँ अर्थश्रद्धा, आस्था, रुचि, द‍ृष्टिकोण। जैसे सम्यक् दर्शन। दर्शन शब्द का छठा अर्थ हैसामान्य अवबोध। एक पर्याय को जानना, एक द्रव्य रूप में जानना।
यह जो छठा अर्थ है, सामान्य अवबोध, वह दर्शनावरणीय कर्म में दर्शन शब्द पर लागू होता है। जैसे मोहनीय कर्म के दो भेद होते हैंदर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। यहाँ दर्शन मोहनीय में दर्शन का अर्थ सामान्य अवबोध नहीं है। वहाँ अर्थ होगा श्रद्धा, आस्था, द‍ृष्टिकोण। दर्शनावरणीय और दर्शन मोहनीय में दर्शन का अर्थ भिन्‍न-भिन्‍न है।
दर्शन को आवृत्त करने वाला दर्शनावरणीय कर्म। ज्ञानावरणीय कर्म और दर्शनावरणीय कर्म दोनों में नैकट्य है, संबंध है। दोनों एक वर्ग के दो कर्म हैं। एक जाति के दो कर्म हैं। ज्ञान की पृष्ठभूमि दर्शन है। दर्शन के बाद आगे ज्ञान के रूप में विकास होता है। एक क्रम विकास का अवबोध है, प्राथमिक अवबोध है, उसको दर्शन मान लें, अगली भूमिका का जो अवबोध है, उसे ज्ञान मान सकते हैं। बचपन की अवस्था दर्शन है, सुव्यवस्था ज्ञान है।
मकान की नींव दर्शन है। मकान ज्ञान है। दर्शन का विकास ज्ञान के रूप में प्रशिक्षित हो जाता है। शास्त्रकार ने दर्शनावरणीय कर्म के नौ प्रकार बताए हैं। पहला प्रकार हैनिद्रा। सोया हुआ व्यक्‍ति सुख से जाग जाए वैसी निद्रा। दूसरा प्रकार हैनिद्रा-निद्रा, घोर निद्रा। सोया हुआ व्यक्‍ति कठिनाई से जागे वैसी निद्रा। तीसरा प्रकार हैप्रचला, खड़े-खड़े या बैठे-बैठे नींद आ जाए। चौथा प्रकार हैप्रचला-प्रचला, चलते-फिरते जो नींद आ जाए। पाँचवाँ प्रकार हैस्त्यानर्द्धि-संकल्प किए हुए कार्य को निद्रा में कर डाले वैसी प्रगाढ़तम निद्रा। रौद्र काम आदमी इसमें कर देता है।
छठा प्रकार हैचक्षुदर्शनावरणीय, चक्षु के द्वारा होने वाले दर्शन का आवरण। एक प्रश्‍न है कि नींद को दर्शनावरणीय कर्म का उदय क्यों माना गया? केवल ज्ञानी को नींद नहीं आती है। दर्शन का काम है, सामान्य अवबोध करना। नींद आ जाने से हमारी ज्ञान की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है। आवरण आ जाता है। इस प्रकार नींद भी दर्शनावरणीय कर्म का एक प्रकार बन जाता है। चक्षु है, तो हम अवबोध कर लेते हैं। नींद में चक्षु बंद हो जाते हैं, तो ज्ञान का अवबोध रुक जाता है।
सातवाँ प्रकारअचक्षुदर्शनावरणीय। चक्षु के सिवाय शेष इंद्रिय और मन से होने वाले दर्शन का आवरण। एकेंद्रीय के पास स्पर्शन के सिवाय इंद्रिय नहीं है, तो मन का भी आवरण है। असंज्ञी में भी यह स्थिति हो सकती है। आठवाँ प्रकार हैअवधि दर्शनावरणीय। मूर्त द्रव्यों के साक्षात दर्शन का आवरण। दर्शन और ज्ञान मानो एक ही सिक्‍के के दो पहलू जैसे हैं। इसलिए केवलज्ञान के साथ केवल दर्शन भी होता है। अवधिज्ञान के साथ भी अवधि दर्शन भी होता है। ज्ञान का अभिन्‍न साथी जैसा सा दर्शन होता है।
नौवाँ प्रकार केवलदर्शनावरणीय। सर्व द्रव्य-पर्यायों के साक्षात दर्शन का आवरण। आत्मा से जो अवबोध होता है, उसको आवरण करने वाले। इस तरह नौ उत्तर प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय कर्म की हो जाती हैं। ज्ञान और दर्शन दोनों बोधात्मक चीजें हैं।
पाँच ज्ञान है। पाँचवाँ केवलज्ञान है, तो दर्शन में केवल दर्शन भी है। अवधि ज्ञान है, तो अवधि दर्शन है। मति, चक्षु ज्ञान है, तो इनको चक्षु दर्शन अचक्षु दर्शन से जोड़ा जा सकता है। मन: पर्यव ज्ञान है, तो मन: पर्यव दर्शन क्यों नहीं होता। मन: पर्यव विशेष ज्ञान होता है। हमारे दर्शनावरणीय कर्म का विकसित क्षयोपशम है। हम पंचेंद्रिय प्राणी हैं। ज्यों-ज्यों इंद्रियाँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों प्राणी विकास की दिशा में आगे बढ़ता है।
पूज्यप्रवर ने माणक महिमा की व्याख्या करते हुए मुनि माणक के गुरुकुल में प्रवेश की बात बताई है। भावी आचार्य आचार्य के पास रह जाते हैं तो उनको अनेक जानकारियाँ मिल सकती हैं। गुरुकुलवास में पहला चतुर्मास बीदासर में हो रहा था और आगे के प्रसंगों को समझाया। अंतिम मर्यादा महोत्सव सरदारशहर में हो रहा था।
पूज्यप्रवर ने साध्वी संवरयशा को 15 की तपस्या का प्रत्याख्यान करवाया एवं सागरमल भोगरा ने भी 15 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया।
मुख्य नियोजिका जी ने मन के प्रकारों के बारे में समझाया। साधना करते-करते आदमी इतना गहराई में चला जाता है कि उसे बाह्य स्थिति का पता ही नहीं चलता है।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में व्यवस्था समिति के मंत्री सुनील दक, नवरत्नमल
डागा, अंजना रांका, रोशनलाल चिप्पड़, जीविका चोरड़िया ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
पूज्यप्रवर ने सम्यक् दीक्षा ग्रहण करवाई। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।