साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(107)

देखती हूँ जब तुम्हारी हृदयस्पर्शी रील कोई।
उतर आती है नयन में आँसुओं की झील कोई।।

सफर लंबा पथ अजाना हमसफर का साथ छूटा
कौंधती नभ में बिजलियाँ सब्र का बंधान टूटा
कौन अब आकर जलाए तिमिर में कंदील कोई।।

खुल रहे थे जिंदगी में क्षितिज सपनों के सलोने
भरा था दामन खुशी से लगे तीनों लोक बौने
चुभ गई कैसे हृदय में अब नुकीली कील कोई।।

दृष्टि धुंधलाई अचानक सोच पर छाया कुहासा
धरा धड़की गिर पड़ा नभ हाथ में आई हताशा
काश! प्राणों की सुने अब व्यथापूर्ण अपील कोई।।

मिली छाया कल्पतरु की सो रही निश्चिंत होकर
हो रही बेजान-सी हा! आज निज सर्वस्व खोकर
रूठ जो किस्मत गई अब कर सके तब्दील कोई।।

नयन हैं प्यासे जहाँ के हर डगर तुमको निहारे
रुक गया ज्यों समय का रथ लग रहे फीके नजारे
की त्वरा इतनी नहीं तुम-सा यहाँ गतिशील कोई।।

(108)

तुलसी अपने युग की अनुपम अद्भुत एक कहानी है
तुलसी के चिंतन में देखी हमने एक रवानी है।
तुलसी का कर्तृत्व निहारा सबने अपनी आँखों से
अनुभव को दे सकें शब्द तो वह ताकत रूहानी है।।

छोड़ गया अनुगूँज गगन में ऐसा गीत सुनाया था
नए बोध के क्षितिजों को उसने उन्मुक्त बनाया था
सपनों की बारात सजाई सदा सलोनी पलकों में
कदम-कदम चुक गए मनोबल को मजबूत बनाया था।।

बाँध सफलता दामन में धरती पर आए श्री तुलसी
घोर विरोधों संघर्षों में मुसकाए थे श्री तुलसी
लहरों का आमंत्रण पाकर सागर तरने की ठानी
बालक युवा वृद्ध सबके मानस पर छाए श्री तुलसी।।

पीछे आने वालों का पथ तुमने सदा बुहारा है
शूलों को चुन फूल खिलाए उपकृत यह जग सारा है
टूटे पंख परिंदों के जब दी तब उड़ने की ताकत
भटके कदमों को अरण्य में उससे मिला उजारा है।।

(क्रमशः)