उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य भद्रबाहु (प्रथम)

श्रुतधर परंपरा में आचार्य भद्रबाहु पाँचवें श्रुतधर थे। अर्थ की द‍ृष्टि से वे अंतिम श्रुतधर थे। नेपाल की गिरि-कंदराओं में उन्होंने महाप्राण ध्यान की विशिष्ट साधना की। श्‍वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में उनको श्रुतधर आचार्य के रूप में आदरास्पद स्थान प्राप्त हुआ। इसका कारण आचार्य भद्रबाहु का प्रभावशाली तेजोमय व्यक्‍तित्व था।
उनका जन्म सम्वत् वी0नि0 94 (वि0पू0 376) में हुआ।
भद्रबाहु ने वैराग्यपूर्वक श्रुतधर आचार्य यशोभद्र के पास वी0नि0 138 (वि0पू0 331) में मुनि-दीक्षा ग्रहण की, गुरु के पास सत्तरह वर्ष तक रहकर उन्होंने आगमों का गंभीर अध्ययन किया। पूर्वों की संपूर्ण श्रुतधारा को आचार्य यशोभद्र से ग्रहण करने में वे सफल हुए। महामेधावी मुनि भद्रबाहु ने वी0नि0 156 (वि0पू0 314) में आचार्य पद का दायित्व संभाला था।
परिशिष्ट पर्व के अनुसार श्रुतधर आचार्य यशोभद्र के द्वारा आचार्य पद पर शिष्य सम्भूतविजय और भद्रबाहु दोनों की नियुक्‍ति एक साथ की गई थी। अवस्था में ज्येष्ठ होने के कारण यह दायित्व पहले सम्भूतविजय ने संभाला। उनके बाद भद्रबाहु धर्मसंघ के अग्रणी बने।
जिनशासन आचार्य भद्रबाहु जैसे सामर्थ्यसंपन्‍न, श्रुतसंपन्‍न, अनुभवसंपन्‍न व्यक्‍तित्व को पाकर धन्य हो गया, कृतार्थ हो गया।
आचार्य भद्रबाहु का विराट् एवं प्रभावी व्यक्‍तित्व था। यही कारण है, आचार्य जंबू के बाद दो भिन्‍न दिशाओं में बढ़ती हुई श्‍वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों की शृंखला एक बिंदु पर आ गई। दोनों ही परंपराओं ने आचार्य भद्रबाहु को समान महत्त्व दिया है।
जैन शासन को वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के मध्यकाल में दुष्काल के भयंकर वात्याचक्र से जूझना पड़ा। उचित भिक्षा के अभाव में अनेक श्रुतसंपन्‍न मुनि काल कवलित हो गए। भद्रबाहु के अतिरिक्‍त कोई भी मुनि चौदह पूर्वों का ज्ञाता नहीं बचा था। वे उस समय नेपाल की पहाड़ियों में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ को इससे गंभीर चिंता हुई। आगमनिधि की सुरक्षा के लिए श्रमण संघाटक नेपाल पहुँचा। करबद्ध होकर श्रमणों ने भद्रबाहु से प्रार्थना की‘संघ का निवेदन है कि आप वहाँ पधारकर मुनिजनों को द‍ृष्टिवाद की ज्ञानराशि से लाभान्वित करें।’ संघ की आज्ञा का सम्मान करते हुए भद्रबाहु ने कहा‘मैं वहाँ आने में असमर्थ हूँ। संघ मेधावी श्रमणों को यहाँ प्रेषित करें, मैं उन्हें वाचना देने का प्रयत्न करूँगा।’
महामेधावी, उद्यमवन्त, स्थूलभद्र आदि पाँच सौ श्रमण संघ का आदेश प्राप्त कर आचार्य भद्रबाहु के पास द‍ृष्टिवाद की वाचना ग्रहण करने के लिए पहुँचे। आचार्य भद्रबाहु प्रतिदिन उन्हें सात वाचनाएँ प्रदान करते थे। एक वाचना भिक्षाचर्या से आते समय, तीन वाचनाएँ त्रिकाल वेला में और तीन वाचनाएँ प्रतिक्रमण के बाद रात्रिकाल में प्रदान करते थे।
द‍ृष्टिवाद का ग्रहण बहुत कठिन था। वाचना-प्रदान का क्रम बहुत मंद गति से चल रहा था। मेधावी मुनियों का धैर्य डोल उठा। एक-एक करके चार सौ निन्यानबे शिक्षार्थी मुनि वाचना क्रम को छोड़कर चले गए। स्थूलभद्र मुनि यथार्थ में ही उचित पात्र थे। उनकी धृति अगाध थी। स्थिर योग था। वे एकनिष्ठा से अध्ययन में लगे रहे। उन्हें कभी एक पद कभी अर्ध पद सीखने को मिलता, परंतु वे निराश नहीं हुए। आठ वर्ष में उन्होंने आठ पूर्वों का अध्ययन कर लिया।