साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(105)

नई सदी का समय सामने नूतन फसल उगाओ।
हो निर्माण नए मानव का ऐसा पाठ पढ़ाओ।।

तुम चलते जब अपनी गति से काल चपल हो जाता
तुम रुकते तो थमता क्षण भी तुम गाते वह गाता
तुम मुसकाते उतरे भू पर मुसकानों का निर्झर
देख तुम्हारा मौन रोकना समय स्वयं अपने स्वर
अपनी ऊर्जा के प्रवाह से ऊर्जावान बनाओ।।

एक बार भी जो सुन लेता आर्य! तुम्हारा प्रवचन
भूल स्वयं को कर देता है अपना सब कुछ अर्पण
जटिल समस्या ले जीवन की सन्निधि में जो आता
बात-बात में अनायास ही समाधान वह पाता
भटक गए हैं जो मंजिल से उनको राह दिखाओ।।

कर तुमसे संवाद अजाने भी बन जाते अपने
उग आते उनकी आँखों में अनगिन अभिनव सपने
टिकती जहाँ तुम्हारी नजरें बदले वहाँ नजारे
अत्राणों के त्राण तुम्हीं अबलों के सबल सहारे
मझधारा में खड़ी नाव को अब तो पार लगाओ।।

(106)
जहं-जहं चरण टिके तुलसी के
वह पथ परम पुनीत हो गया।
जिस पर नजर टिकी तुलसी की
वह नर सरल विनीत हो गया।।

सूरज की उजली किरणों के
सरस परस से पुलकन पाकर
गुरु-दर्शन की प्यास बुझाने
नव उमंग में कदम बढ़ाकर
प्रतिदिन पहुँच प्रवास-स्थल पर
वंदन कर सुख-पृच्छा करते
आशीर्वाद हाथ से नयनों से
करुणा के निर्झर झरते
समासीन सन्निधि में कुछ पल
रहती सबको सदा प्रतीक्षा
विविध विधाओं में मिलता था
अनुपम संबल और समीक्षा
ऊर्जा से भर जाता मानस वह
युग आज अतीत हो गया।।

प्रवचनशैली बड़ी रसीली
जनता को मोहित कर लेती
पक्ष हेतु दृष्टांत तर्क से
मन के सब संशय हर लेती

आम खास हो कोई चाहे
सबको बोधपाठ मिल जाता
जादूगर थे सहज सुरों के
सुनकर हृदय-कमल खिल जाता
बहुश्रुतता की रसमय धारा
अभिस्नात करती जन-जन को
भूल नहीं पाता कोई भी
उनके अद्भुत अपनेपन को
तुलसी का हर बोल हमारे
जीवन का संगीत हो गया।।

योग विरोधों का जीवन में
नहीं कभी उनसे घबराए
संघर्षों से लोहा लेकर
कितने विजय-ध्वज फहराए
कदम-कदम पर शूल बिछे थे
हँसते-हँसते फूल खिलाए
तम का जाल बिछा था मग में
मोड़-मोड़ पर दीप जलाए
वत्सलभाव लुटाया इतना
रहा न कोई भी घट रीता
सौमनस्य की सुर-सरिता से
दूर-निकट सबका दिल जीता
भारत की क्या बात आज तो
विश्व समूचा मीत हो गया।।

(क्रमशः)