कालूगणी का जन्म जयाचार्य युग में: आचार्यश्री महाश्रमण

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कालूगणी का जन्म जयाचार्य युग में: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 19 अक्टूबर, 2022
आचार्य श्रेष्ठ आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में कहा गया है कि भारतीय दर्शन के क्षेत्र में कुछ दार्शनिक दुःखवादी हुए हैं। वे दुःख को मानने वाले होते हैं। पतांजलि, साख्य दर्शन और बौद्ध दर्शन में व जैन आगम में भी दुःख की बात बताई गई है। जन्म, जरा, रोग, बुढ़ापा आदि अनेक दुःख संसार में हैं। भगवती सूत्र में बताया गया है कि संसार में सुख भी है और दुःख भी है। नैरयिक होते हैं, वे एकांत दुःख का वेदन करते हैं। फिर भी वे कभी-कभी साता का भी अनुभव करते हैं। जब तीर्थंकरों के कल्याणक महोत्सव का समय आता है, तब उनको सुखानुभूति होती है। चारों प्रकार के देव एकांत साता का वेदन करते हैं, किंतु कभी-कभी वे भी असाता का वेदन करते हैं। तिर्यंच और मनुष्य विमात्रा यानी कभी सुख, कभी दुःख का वे वेदन करते हैं।
परम सुख मुक्ति को प्राप्त करना अध्यात्म की साधना का लक्ष्य हो सकता है। जैन धर्म में भी साधना-मुक्ति की बात आती है। जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ में पूर्व में दस आचार्य हुए हैं। इनमें से डालगणी किसी आचार्य द्वारा नियुक्त आचार्य नहीं बने थे। परमपूज्य कालूगणी ने स्वयं सहित चार आचार्य देख लिए थे और दो अपने सुशिष्यों को दीक्षित भी कर दिया जो आगे उनके उत्तराधिकारी बने थे। जयाचार्य जब बीदासर में विराजमान थे तब उस समय बात आई थी कि यहाँ से चार कोस पर एक शिशु का जन्म हुआ है, जो तेरापंथ का भावी आचार्य होगा। कालूगणी का जन्म जयाचार्य युग में हुआ था।
गुरुदेव तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जी से कालूगणी के बारे में कुछ-कुछ श्रवण का अवसर मिला है। इतिहास पढ़ने से भी जानकारियाँ मिल सकती हैं। पूज्य माणकगणी के बाद भावी आचार्य के रूप में मुनि कालू का नाम भी उभरा था। डालगणी के शासन में मुनि कालू साधारण साधु के रूप में रहे थे। डालगणी का अपना जीवन रहा है। वे अग्रणी रूप में विचरे थे। यात्राएँ भी बहुत की थीं, मुनि जीवन में तीन बार कच्छ की यात्रा की थी। उनमें व्याख्यान देने की भी कला थी। डालगणी ने मुनि कालू छापर को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। पर प्रगट रूप में युवाचार्य नहीं बनाया था। प्रच्छन्न रूप में नियुक्ति थी। आचार्य के सामने युवाचार्य हो तो आचार्य को राहत मिल सकती है। डालगणी ने शिक्षाएँ भी नहीं फरमाई थी।
डालगणी से एक शिक्षा ये अवश्य ली जा सकती है कि वर्तमान आचार्य किसी चारित्रात्मा को आगे लाने का प्रयास करे तो बाद के आचार्य भी उनको महत्त्व देते रहें। डालगणी कहते थे मुनि मगनजी को परंतु लक्ष्य मुनि कालू को सुनाने का होता था। कालूगणी ने उस इंगित को अनुसरण कर मुनि मगन जी को उतना ही महत्त्व दिया था। डालगणी हमारे धर्मसंघ के इतिहास में तेजस्वी आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं। कालूगणी ने अपने हिसाब से धर्मसंघ को आगे बढ़ाया था। हम डालगणी और कालूगणी दोनों से प्रेरणाएँ लेते रहें।
मुनि कुमार श्रमण जी ने पूज्य कालूगणी के बारे में समझाया कि छापर का नाम कालूगणी से जुड़ा है। कालूगणी का इतिहास तेरापंथ का अनूठा इतिहास है। कालूगणी के जीवन पर सबसे ज्यादा असर मघवागणी का था। उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। डालगणी भी विलक्षण आचार्य थे। मुनि वर्धमान कुमार जी ने सुमधुर गीत की प्रस्तुति दी। साध्वी मृदुला कुमारी जी, साध्वी अखिलयशा जी, समणी जिज्ञासाप्रज्ञा जी, समणी कुसुमप्रज्ञा जी ने कालूगणी के प्रति अपनी भावना अभिव्यक्त की। बैद परिवार, शांति दुगड़, नाहटा परिवार, प्रेम भंसाली ने भी अपनी श्रद्धासिक्त भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।