साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(100)

अनजाने से बीहड़ पथ में
हाथ पकड़ चलना सिखलाया।
वंदन उसे हमारा जिसने
तम में भास्वर दीप जलाया।।

अंतस की निर्मल ममता ने
रिसते जखमों को सहलाया
पतझर को ऋतुराज बनाने
नई बहारें लेकर आया
खंड-खंड में बिखरे सच को
एक साथ जिसने समझाया
अस्थिर मूल्यों के संकट में
मानवता का मोल बढ़ाया
हर प्रभात में जिसने शाश्वत
जिनवाणी - संदेश सुनाया।।

सूनी-सूनी राहों में जिसने
गुमराहों को संभाला
देख जिसे सबकी आँखों में
उतरा अनायास उजियाला
जीवन में संगीत-लहरियाँ
हुईं तरंगित जिसको सुनकर
जिसका पावन परस प्राप्त कर
चंदन बनी चित्त की ज्वाला
नए-नए सपने संजोकर
जिसने नव इतिहास बनाया।।

जिस जीवन का हर अगला पल
देखा सफल सकल इस जग ने
जिसका आश्रय पाकर गति की
नभ में बिना पाँख के खग ने
तपःपूत जो शांतिदूत जो
देवदूत-सा जो मनमोहक
मंजिल तक पहुँचाया सबको
जिसके निर्देशित हर मग ने
मधुर जागरण की वेला में
सपनों का संसार बसाया।।

मरु के सूखे अंचल में है
अंतःसलिला की जो धारा
मझधार में अटकी-भटकी
हर नौका के लिए किनारा
खिल जाती अलसाई कलियाँ
जिसके पावन दर्शन पाकर
जीवन में पुलकन भर देता
केवल जिसका मौन इशारा
जिसके आश्वासन से मन का
पोर-पोर थिरका हुलसाया।।

(क्रमशः)