स्वस्थ शरीर आध्यात्मिक साधना में उपयोगी होता है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

स्वस्थ शरीर आध्यात्मिक साधना में उपयोगी होता है : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 4 अगस्त, 2021
महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम के नौवें स्थान के तेरहवें सूत्र में शरीर के लिए कहा गया हैशरीर व्याधियों का घर है। बीमारी शरीर में हो सकती है। असातवेदनीय का उदय-योग बन सकता है।
बीमारी की उत्पत्ति में कहीं आदमी की अजागरूकता भी किसी रूप में हेतु बन सकती है। शास्त्रकार ने रोग की उत्पत्ति के नौ कारण बताए हैं। पहला कारण बताया हैनिरंतर बैठे रहना या अति भोजन करना। अव्यासन-लंबी देर बैठना। इसका दूसरा पक्ष भी है कि साधना करने वाले लंबे समय तक ध्यान में बैठ सकते हैं। एक आसन में लंबी देर तक बैठना साधना का प्रयोग भी है।
अत्सन-ज्यादा खाना ये तो गलत है ही। भोजन संतुलित रहना चाहिए। भोजन ज्यादा मात्रा में खाने से रोग पैदा हो सकता है। सामान्यतया अति कहीं नहीं करनी चाहिए।
दूसरा कारणअहितकर आसन पर बैठना या अस्तिकर भोजन करना। अहितकर स्थान (पाषाण खंड) आदि पर बैठने से तकलीफ हो सकती है। अगर खाना भी अहितकर या आसक्‍ति से खाएँ तो तकलीफ हो सकती है। तीसरा कारणअतिनिंद्रा। अति निंद्रा भी ठीक नहीं। अतिनिंद्रा में आलस्य आता है। स्वाध्याय में कमी हो सकती है। दिनचर्या व्यवस्थित हो।
चौथा कारणअति जागरण। ज्यादा जागना भी बढ़िया नहीं। कभी ज्यादा जाग गए बात अलग है, पर निरंतर अति जागरण न हो। पाँचवाँ कारणउच्चार (मल) का निरोध। पंचमी समिति की बाधा हो गई है, तो उसे रोकना नहीं चाहिए, निवृत्ति कर लेनी चाहिए।
छठा कारणप्रश्रवण का निरोध। पेशाब को भी रोकना नहीं चाहिए। यहाँ तक शास्त्रकार ने कहा है कि गोचरी जाओ, वहाँ भी हाजत हो जाए तो निवृत्ति कर लो। साधु किसी काम से जाए तो पहले प्रश्रवण कर लेना चाहिए। निवृत्ति के बाद काम अच्छा होगा, वरना बाधा रहेगी। सातवाँ कारणपंथगमन। संभवत: इसका तात्पर्य है कि ज्यादा चलना भी अहितकर हो सकता है। 

आठवाँ कारण हैभोजन की प्रतिकूलता। भोजन में कोई ऐसी-वैसी गलत चीज आ गई तो बीमारी पैदा हो सकती है। यह एक द‍ृष्टांत से समझाया। कभी-कभी प्रतिकूलता से मौत हो सकती है। नौवाँ कारण बताया हैइंद्रियार्थ विकोपन-काम विकार। इससे भी बीमारी पैदा हो सकती है।
इस शरीर की भी सुरक्षा तब तक करनी चाहिए, जब तक संथारा संलेखना का भाव न बने। जब तक शरीर से काम अच्छा हो रहा है, अनेक सेवा के कार्य हो रहे हैं, तब तक शरीर का भी ध्यान रखो। उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की हो सकती है। शरीर उत्तर दे उससे पहले हम अपना उत्तर देने के लिए तत्पर हो जाएँ। शरीर हमको छोड़े, पहले हम शरीर को छोड़ दें।
शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता रखनी चाहिए। खान-पान में ध्यान रखें। आसक्‍ति से नहीं खाना। कोई विकृत्ति पैदा न हो जाए। बाकी तो कर्मों का योग है। बार-बार न खाएँ। गुस्से से बचें। दिनचर्या अच्छी रखो, रात्रि चर्या भी अच्छी रखो। थोड़ा जीवन में श्रम रखो। आसन-प्राणायाम का प्रयोग हो तो स्वास्थ्य अच्छा रह सकता है। शरीर अच्छा है, तो साधना भी अच्छी हो सकती है। शास्त्रकार ने रोगोत्पत्ति के नौ कारण बताए हैं, हम उनसे बचने का प्रयास करते रहें।
माणक महिमा की विवेचना करते हुए परम पावन ने फरमाया कि वे छोटी उम्र में ही युवाचार्य बना दिए गए थे। जयाचार्य निश्िंचत हो गए थे। आचार्य को गण चिंता से मुक्‍त रहना चाहिए। बालक मघवा की दीक्षा के समाचार के बाद पूज्य रिषिराय को आई छींकों का प्रसंग समझाया।
मुख्य नियोजिका जी ने भवन पति देवों के बारे में विस्तार से बताया। परमाधामी देवों के बारे में बताया कि वे संकलिष्ट परिणाम वाले होते हैं, वे तीसरे नरक तक जाकर नारकीय जीवों को कष्ट देते हैं।
पूज्यप्रवर ने छितरमल मेहता को 17 की तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए व दूसरे भी तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में दक्ष बड़ोला, डॉ0 एल0एल0 सिंघवी, लक्ष्मीलाल झावक, एस0एन0 गंग्गड़जी एवं मित्रजन ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।