संगठन के विधान के अनुपालन से मजबूत होता है संगठन : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

संगठन के विधान के अनुपालन से मजबूत होता है संगठन : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 31 जुलाई, 2021
जिन शासन प्रभावक, आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि संगठन होता है, वहाँ उसमें सुव्यवस्था रहे, संगठन स्वस्थ रहे, संगठन द‍ृढ़ भी रहे और संगठन विकास की दिशा में आगे बढ़े। ये बातें संगठन के लिए हितावह हो सकता है।
इसके लिए अपेक्षित है कि संविधान-मर्यादा सुनिर्मित हो और फिर मर्यादाओं के पालन के प्रति भी और अनुपालन करवाने के प्रति भी व्यवस्था रहे, जागरूकता रहे। संगठन में जो सदस्य होते हैं, वे संगठन के प्रति भी एक वांछनीय उचित निष्ठा का भाव रखें, सम्मान और विनय का भाव रखें। अनुशासन का उपयुक्‍त पालन हो, यह अपेक्षा होती है।
जहाँ संगठन के सदस्यों में उच्छृंखलता, अविनय भाव होना व जिस शाखा पर बैठा है, उसी को काटने का प्रयास अगर कोई करता है, तो वो फिर खुद कहाँ रहेगा? वह भी नीचे गिर जाएगा। संगठन के सदस्यों में अपने-अपने औचित्य के अनुसार विनयपूर्ण भाव और व्यवहार होना चाहिए।
ठाणं आगम के नौवें सूत्र में शास्त्रकार ने ऐसी ही बात बताई है कि नौ स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ सांभोगिक साधु को विसंभागिक करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं कर सकता। आचार्य का प्रत्यनीक, उपाध्याय का प्रत्यनीक, स्थविर का प्रत्यनिक, कुल का प्रत्यनिक, गण का प्रत्यनिक, संघ का प्रत्यनिक, ज्ञान का प्रत्यनिक, दर्शन का प्रत्यनिक, चारित्र का प्रत्यनिक ये नौ बातें बताई हैं कि जो साधुओं का संघ है, वहाँ बहुत से साधु हैं। अब कोई साधु कर्तव्य के प्रतिकूल आचरण-व्यवहार करता है, उसे समझाने का प्रयास होना चाहिए।
प्रयास कर लिया यदि वो ठीक नहीं हो रहा है, तो क्या करना चाहिए? इस संदर्भ में शास्त्रकार ने कहा है कि ऐसी स्थिति में जो सधार्मिक है, सांभोगिक है, उसको विसांभोगिक भी किया जाए तो कोई आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता। संबंध विच्छेद भी कर दिया जाता है।
ऐसा करने के पीछे दो बातें हो सकती हैं। पहली बात हैजो साधु उचित आचार-व्यवहार का पालन ही नहीं करता है, क्या वह उस संप्रदाय का सदस्य भी रहने लायक है? अयोग्य को कब तक संगठन में रखा जाए। दूसरी बात है कि एक व्यक्‍ति अयोग्यतापूर्ण कार्य करता है, उसको मौका देकर सुधारा जाए, अवसर दिया जाए। सब कुछ करने के बाद भी सुधार नहीं है, तो फिर विसांभोगिक करने की बात है।
एक व्यक्‍ति यूँ प्रतिकूल आचरण करता है, उस पर कोई कार्यवाही नहीं है, तो दूसरों का भी हौसला बढ़ेगा कि करते जाओ, यहाँ कहने वाला कोई नहीं है। उसके कारण दूसरे भी बिगड़ सकते हैं, इसलिए उसको विसांभोगिक कर दिया जाए। यह एक घटना से समझाया कि आगे न फैले इसलिए ऑपरेशन करने की अपेक्षा होती है। सड़े हुए पान को बाहर निकाल दो तो और पान सड़ेंगे नहीं।
जैसे कोई साधु आचार्य के प्रत्यनिक हो गया, आचार्य के प्रति अवांछनीय व्यवहार करता है तो फिर दूसरे भी करेंगे, संगठन को खतरा हो सकता है। वो समझाने पर भी नहीं समझ रहा है, तो उसे विसांभोगिक कर दो। इसी तरह अन्य के प्रति ऐसा व्यवहार बन जाए, आधारहीन बातें बोलना, अवगुण बोलना, निंदा करना होता है, तो उसे गण से अलग कर दो।
कोई बात है तो उचित जगह जाकर बता दो। बात में सार ही नहीं है और जगह-जगह जाकर माहौल खराब कर रहे हो। उसे समझाओ। नहीं माने तो फिर हमारे साथ तुम्हारा रहना मुश्किल है। समझाने पर भी न माने तो उसका संबंध विच्छेद कर दिया जाए तो कोई बुरी बात नहीं। शास्त्रकार ने जो संदेश दिया है, वह संगठन की स्वस्थता की द‍ृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
दीक्षा योग्य की हो, कोई अयोग्य समाविष्ट हो जाए तो उचितता से उसका संबंध विच्छेद कर देना चाहिए। आचार्य भिक्षु का भी यही संदेश है
सगला रे, सगला साध न साध्वी रे,
रखज्यो हेत विशेष रे।
जिणतिण न रे, जिणतिण न मत मूंडज्योरे,
दीख्या देज्यो देख देख रे॥
चेला चाहिए, पर हर किसी को चेला मत बनाओ, परखकर बनाओ। जहाँ अयोग्य व्यक्‍ति आ जाते हैं, वहाँ कैसे क्या होगा?
संगठन के जो सदस्य हैं, उनमें विनयपूर्ण व्यवहार और कर्तव्यनिष्ठा का भाव होना चाहिए। हमारे दूसरे आचार्यश्री भारमल जी का 200वाँ महाप्रयाण दिवस संपन्‍नता का निकट माघ महीने में आ रहा है। शास्त्रकार ने संगठन की स्वस्थता के लिए संदेश दिया कि ऐसे प्रत्यनिक को विसांभोगिक बना दो, जो आज्ञा का अतिक्रमण करे।
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