साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(98)

महासूर्य के महातेज से हो जाए जग स्नात।
प्राणों के सर में खिल जाए आज नए जलजात।।

भ्रमित हो रहा मनुज देख हिंसा की काली छाया
मंडराता दिन-रात सामने संदेहों का साया
जड़ें काट आस्था की मानव अब दिग्मूढ़ बना है
पक्षाघात हुआ चिंतन को मन कितना अदना है
करो अनुग्रह तुम ले आओ यहाँ ज्योति का झरना
दिशाबोध दो तम-सागर से कैसे पार उतरना
ला सकते तुम ही धरती पर उजला नया प्रभात।।

गिरी साख संस्कृति की बदल गई जीवन की शैली
मानवीय मूल्यों की अवनति गति कितनी अलबेली
वीर-प्रसू धरती भारत की क्यों असहाय बनी है
भाई-भाई बीच अचानक कैसे आज ठनी है
अरमानों में भरो रोशनी पंथ स्वयं दिख जाए
देख दिली उत्साह सामने मंजिल खुद ही आए
बोध प्राप्त कर तुमसे मानव बन जाए निष्णात।।

उभर रही जो जिज्ञासाएँ बना उन्हीं का घेरा
जीवन की अनुपम पोथी का पढ़ पाए हर पैरा
सद्गुण मोती रहे बरसते संवेदन-सीपों से
आश्वासन मिल जाए मन को असंदीन द्वीपों से
स्निग्ध और निर्धूम शिखा-सा आभावलय तुम्हारा
देख तुम्हारी ज्ञानचेतना स्वयं बृहस्पति हारा
मधुर-मधुर मुसकानों से यह बहता सुधा-प्रपात।।

(99)

जो अभिनव इतिहास बनाए वह संन्यास तुम्हारा है।
नई बहारें लेकर आए वह मधुमास तुम्हारा है।।

स्वर्ण कमल-सा खिला-खिला दिन-रात रजत जैसी धवला
सुबह सुहानी अरुणाभा से संध्या गंगा-सी अमला
कालजयी कर्तृत्व अनूठा आत्म-तेज से है भास्वर
जीवन के संकल्प तुम्हारे आप्तकाम हे ज्योतिर्धर!
संशय से धुंधली आँखों में बस विश्वास तुम्हारा है।।

फूल खिला दे जो पत्थर पर गीत विलक्षण तुम गाते
बदले जो दिनमान सृष्टि का वह अभियान चला पाते
आत्मबोध की विधा विलक्षण त्रास मनुजता का हरते
निरालंब के आलंबन बन जड़ में नव स्पंदन भरते
विश्व-चेतना की धड़कन में हर उच्छ्वास तुम्हारा है।।

स्वप्नों के श्वेताभ देश में घूम रहे तुम हो निर्बन्ध
नए सृजन का बोध दे रहे सरज रहे मानो मधुछन्द
ऋतम्भरा प्रज्ञा से भावित बोल तुम्हारे सुधा-सने
युग की प्रश्नायित आँखों में कैसे मोहक चित्र बने
आत्मलोक की सीमा पर यह विधि-विन्यास तुम्हारा है।।

सौ-सौ सूरज चमके नभ में मिटे न फिर भी अंधियारा
उगे हजारों चाँद भले ही फैल न पाए उजियारा
जहाँ तुम्हारे दिव्य तेज कण बिखर पंथ में थम जाते
वहाँ तमस के पाँव स्वयं ही पीछे हटकर जम जाते
खिला-खिला-सा कमल-सरोवर यह मृदुहास तुम्हारा है।।

(क्रमशः)