कृत कर्मों के अनुसार होता है आयुष्य का बंध : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कृत कर्मों के अनुसार होता है आयुष्य का बंध : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 28 जुलाई, 2021
महामनीषी, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी सृष्टि में विभिन्‍न चीजें हैं। ठाणं आगम के आठवें अध्याय के 108वें सूत्र में शास्त्रकार बता रहे हैंपृथ्वियाँ आठ हैंरत्न प्रभा, शर्करा प्रभा, बालुका प्रभा, पंक प्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, अध:सप्तमी (महातम: प्रभा) और ईषत् प्राग् भारा।
ये सात (प्रथम) तो नीचे है, आठवीं ऊपर है। इन आठों में प्रथम सात नरक की द्योतक है। ये नरकों के गौत्र हैं। सात ये पृथ्वियाँ हैं, नरक भी सात है, जहाँ नारकीय जीव रहते हैं।
हमारी सृष्टि में जीव है। जीव शुभ कर्मों का अर्जन भी करते हैं तो अशुभ कर्मों का अर्जन भी कर लेते हैं। जैसे कर्म होते हैं, उनके अनुसार अगली गति का आयुष्य बंध होता है। चार गतियाँ हैंनरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति, देव गति। मनुष्य मरकर के किसी भी गति में जा सकता है। मरकर मनुष्य मोक्ष में जा सकता है।
प्रश्‍न होता हैक्या नरक में इन चारों गतियों के जीव पैदा हो सकते हैं? चारों के नहीं हो सकते। नारकीय जीव जो नरक में है, वह पुन: मरकर नरक में पैदा नहीं हो सकता। देवगति के देव हैं, वे अपने आयुष्य की समाप्ति के बाद सीधे देव नहीं बन सकते और न ही नरक में पैदा हो सकते हैं। नारकीय भी देव गति में भी पैदा नहीं हो सकते। देव और नारकीय जीव सिर्फ मनुष्य या तिर्यंच में ही पैदा हो सकते हैं।
तिर्यंच और मनुष्य नरक गति में पैदा हो सकते हैं। हर कोई तिर्यंच, हर कोई नरक में जाकर पैदा नहीं हो सकता। हर कोई मनुष्य नरक में पैदा नहीं हो सकता। जो पैदा होने के लायक है, वो ही हो सकते हैं।
सात नरक हैं, उसमें कौन पैदा हो सकते हैं, उसका एक फार्मूला है। अ0भु0खे0ठ0ऊ0ठी0ज0म। कौन-कौन कहाँ पैदा हो सकता है। अ यानी असंज्ञी तिर्यंच पंचेंद्रिय पहली नरक तक जा सकते हैं। उसके आगे पैदा नहीं हो सकते।
भु0 यानी भुजंग परिसर्प तिर्यंच पंचेंद्रिय है, वे जीव दूसरी नरक तक पैदा हो सकते हैं। खेचर आकाश में उड़ने वाले पक्षी वे तीसरी नरक तक पैदा हो सकते हैं। ठथलचर वे चौथी नरक तक पैदा हो सकते हैं। ऊऊरप रिसर्प पाँचवें नरक तक पैदा हो सकते हैं। ठीयानी स्त्री, छठी नरक तक जा सकती है। आगे सातवीं में नहीं। जजलचर है, वो सातवीं नरक तक और ममनुष्य भी सातवीं नरक तक पैदा हो सकते हैं। पुरुष मनुष्य सातवीं नरक तक जा सकते हैं। स्त्री-महिला छठी तक ही जा सकती है। तुलना करें तो ज्यादा पापी पुरुष हो सकता है। महिला नहीं। पुरुष ज्यादा पाप कर सकते हैं।
इसका दूसरा पहलू देखें कि जो कुछ साधना पुरुष कर सकता है, वो कुछ-कुछ साधना महिला नहीं कर सकती। धर्म की साधना पुरुष ही कर सकते हैं। अचेल साधना पुरुष ही कर सकते हैं।
नारकीय जीवन मिलता है, तो नरक तो मुख्यतया दु:ख का ही स्थान है। पर कभी-कभी साता भी मिल सकती है। तीर्थंकरों के कल्याणकों के समय नारकीय जीवों को भी सुख की प्राप्ति हो सकती है।
चौबीसी का ग्रंथ महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यूँ तो स्तुति है, चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के साथ बीच-बीच में तत्त्व ज्ञान भी है। जयाचार्य के पास जो तत्त्व ज्ञान था उसकी कुछ बूँदें बरसाने का प्रयास किया गया है।
सुर अनुत्तर विमान का सेवै के,
प्रश्‍न पुछ्या उत्तर जिन देवे रे।
अवधिज्ञान करि जाण लैवे रे,
प्रभु नमिनाथजी मुझ प्यारा रे॥
तीर्थंकर और अनुत्तर विमान के देवों का कैसे संपर्क होता है, यह इसमें बताया गया है। इस तरह जयाचार्य का सूक्ष्म ज्ञान गीतों में मानो आ ही गया।
नारकीय जीव नरक आयुष्य वापस क्यों नहीं बाँध सकते? नरक के जीव इतने दु:खी होते हैं कि नए सिरे से इतना पाप का बंध नहीं कर सकते कि पुन: नरक में पैदा होना पड़े। इसी तरह देव है। देव अच्छे कर्म करके देवगति में गए हैं। वे वहाँ इतना पाप नहीं कर सकते कि सीधे नरक में आ जाएँ न वे देव गति में जा सकते हैं।
नरक गति के चार कारण बताए गए हैंमहा आरंभ, महा परिग्रह, पंचेंद्रिय वध और मांसाहार। इन कारणों से आदमी बचे। पाप हो जाए तो प्रायश्‍चित कर लें। हिंसा करके साथ में खुशी तो न मनाओ। रामायण के प्रसंग को समझाया कि भावों-भावों में अंतर है। रामचंद्रजी ने सहजता का परिचय दिया। हिंसा कर खुशी मनाने से और पाप बंध होगा। हिंसा करने से आदमी बचे।
पूज्यप्रवर ने माणक महिमा का वाचन किया। जयाचार्य का वि0सं0 1928 के जयपुर चतुर्मास का प्रसंग प्रभावशाली ढंग से समझाया। माणकलाल (आचार्यश्री माणकगणी) के प्रारंभिक जीवन के बारे में फरमाया। तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
मुख्य नियोजिका जी ने सिद्धों के गुणों के बारे में विस्तार से समझाया। सिद्धों में तो निर्मल चैतन्य होता है। वहाँ वर्ण, गंध, रस-स्पर्श कुछ नहीं होता है। न वेद है। जीव जब सिद्ध गति में पहुँचता है, तो पहले समय में ही ये गुण प्रकट हो जाते हैं।
मुनि प्रसन्‍न कुमार जी ने तपस्या करने की प्रेरणा दी। मुनि अतुलकुमार जी ने अपनी भावना पूज्यप्रवर के चरणों में रखी।
शुभकरण चोरड़िया, दिनेश कांठेड, गणपत पितलिया, विमला, पारस देवी
मेहता ने अपनी भावना श्रीचरणों में अभिव्यक्‍त की।