साम्यभाव की प्रतिमूर्ति - साध्वी धर्मयशाजी

साम्यभाव की प्रतिमूर्ति - साध्वी धर्मयशाजी

तेरापंथ धर्मसंघ एक गौरवशाली धर्मसंघ है। आज्ञा, अनुशासन, मर्यादा, व्यवस्था, श्रद्धा, समर्पण इसके मुख्य आधार हैं। इस धर्मसंघ की आचार्य परंपरा बहुत यशस्वी रही है। सभी आचार्यों ने अपने प्रबल पुरुषार्थ, समय की सही सूझ-बूझ, निर्मल साधना, प्रखर मेधा एवं अपने कुशल कर्तृत्व में धर्मसंघ को आकाशीय ऊँचाइयाँ प्रदान की हैं। एक आचार एक विचार एवं एक ही गुरु की अनुशासना में यह धर्मसंघ निरंतर आध्यात्मिक विकास करता रहा है। वर्तमान में अध्यात्म के शिखर पुरुष महिमा मंडित युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी का अनुपमेय व्यक्तित्व हर जनमानस को प्रभावित कर रहा है। ऐसे महापुरुष बड़े भाग्योदय से प्राप्त होते हैं। उनकी कुशल अनुशासना में संघ के हर साधु-साध्वी पूर्ण निश्चिंतता का अनुभव कर रहे हैं। गुरु की असीम कृपा से साधु-साध्वियाँ शिक्षा, सेवा, साहित्य, साधना, तपस्या आदि क्षेत्रों में आगे बढ़ते हुए पूर्ण आनंदमय व चित्त समाधिमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। संघीय इतिहास में अनेक साधु-साध्वियों ने अपनी विनम्रता, सेवा भावना, श्रमशीलता, स्वाध्यायशीलता, कर्मठता, आचारशीलता, गुरुनिष्ठा, संघनिष्ठा एवं अध्यात्म निष्ठा आदि सद्गुणों से पूर्ण समाधिमय संयमी जीवन जीकर अपनी जीवन यात्रा को सानंद संपन्न कर समाधि मरण को प्राप्त किया है।
उन्हीं साधु-साध्वियों की कड़ी में एक नाम और जुड़ा हैµवह है साध्वी धर्मयशा जी। बीदासर का प्रतिष्ठित परिवार हैµगोलछा परिवार। पूरे परिवार में संघनिष्ठा, गुरुनिष्ठा एवं धर्मनिष्ठा के संस्कार भरे हुए हैं। इस परिवार से अनेक भाई-बहनों ने दीक्षा स्वीकार की है। वर्तमान में है मुनि धन्यकुमार जी, डॉ0 साध्वी परमयशा जी एवं साध्वी धर्मयशा जी। साध्वी धर्मयशा जी एक सहज-सरल, शांत स्वभावी, मधुरभाषी, स्वाध्यायी, सौम्य आकृति एवं सहनशील, निष्ठावान साध्वी थी। करीब 40 वर्षों तक तेरापंथ धर्मसंघ में संयम की पवित्र साधना की। दीक्षित होने के बाद असात वेदनीय कर्म का उदय होने से शरीर में अस्वस्थता बहुत रही। फिर भी आपने वेदना को सदैव बड़े शांति एवं साम्य भाव से सहन किया और अंत तक सहन करती रही। वे पढ़ी-लिखी साध्वी थीµस्वाध्यायशील, विनयशील, व्यवहारकुशल साध्वी थी। हमेशा आपने गुरुदृष्टि की आराधना की। गुरु कृपा से ही संघ के हर सदस्य ने अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी बड़ी निश्चिंतता एवं पूर्ण समाधिमय अपनी यथाशक्ति अपनी संयम की साधना की है और वर्तमान में कर रहे हैं। हमारा परम सौभाग्य है कि ऐसा हमें भैक्षव शासन मिला। वर्तमान में शांतिदूत, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी जैसे तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी गुरु की पावन अनुशासन मित्र रहा है। जिनका संघ के हर साधु-साध्वी के प्रति अहोभाव है, पूर्ण चित्त समाधि प्रदान करने का निरंतर चिंतन रहता है। ऐसे अनंत उपकारी गुरु को पाकर पूरा धर्मसंघ अत्यंत धन्यता की अनुभूति कर रहा है।
साध्वी धर्मयशा जी का मेरे संसारपक्षीय परिवार से भी रिश्ता था। मैंने बचपन से ही उनको देखा है, जाना है। पा0शि0सं0 में भी हम कुछ दिन साथ रहे हुए हैं। सभी मुमुक्षु बहनों के साथ भी बहुत अच्छा व्यवहार था। हर कार्य को बड़ी चतुराई से करती थी। बीदासर की वीरभूमि में ही जन्मी। वीरभूमि में ही आचार्यश्री तुलसी के करकमलों से दीक्षित हुई। करीब 40 वर्ष तक संयम की निर्मल साधना की। शरीर में वेदना होते हुए भी अपना कार्य स्वयं करती थी। बीमारी की अवस्था में गुरु की बहुत कृपा रही। जिस समय जैसी व्यवस्था की अपेक्षा हुई गुरु ने तत्काल वह व्यवस्था देकर उनको पूर्ण आत्म संतुष्टि दी। अंतिम समय में बीदासर समाधि केंद्र में आप स्थिरवास हो गई, पर नियति को और कुछ ही मंजूर था। कुछ दिन का प्रवास रहा, अकस्मात वहाँ गिर गई। ब्रेन हेमरेज हो गया। अस्वस्थ अवस्था में आपको जयपुर लाया गया। वहाँ इलाज भी काफी चला किंतु कोई उपचार काम नहीं आया। संयोग से उस बीमारी की अवस्था में ही साध्वीश्री जी देवलोक हो गई। साथ में साध्वी हेमरेखा आदि साध्वियों ने भी सेवा करके अपना पूरा दायित्व बड़ी जागरूकता से निभाया। आज बीदासर की साध्वियों में एक साध्वी की कमी हो गई। संघ में आई और संघ में ही समाधि मरण को प्राप्त किया। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है। मैं उस आत्मा के प्रति मंगलकामना करती हूँ कि वह आत्मा जहाँ भी गई है उसका निरंतर आध्यात्मिक विकास होता रहे।