साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(93)

नीरव नभ अनिमिष नयनों से देख रहा है
चरण-स्पर्श पा संतों का धरती हरसाए।
देख धरा को अकुलाते रवि के आतप से
इमरतवर्षी जलधर बन तुम नभ पर छाए।।

देख इंदु को तरल ऊर्मियाँ उछल-उछल कर
सागर के सीने का वैभव आँक रही थीं
घुँघराले बालों जैसे इन आवर्तों में
नाविक की रोनी-सी सूरत झाँक रही थी
तब तुम सबल सहायक बनकर खड़े हो गए
मझधार में खड़ी नाव तट पर ले आए।।

अणुअस्त्रों की क्षमता का अनुमान लगाने
वैज्ञानिक हर दिन प्रयोग की करते बातें
स्पर्धा शस्त्रों की सचमुच अभिशाप बनी है
इस रहस्य को समझदार भी समझ न पाते
मनोवृत्ति हिंसा की क्रूर बनाती नर को
सत्य अहिंसा के तुमने ही पाठ पढ़ाए।।

पाँव-पाँव चलने वाले हे दिव्य दिवाकर!
अणुव्रत का अवदान दिया तुमने वरदायी
झंकृत किया सुरीले गीतों से मानस को
तत्त्व भरा अपनी प्रज्ञा से इनमें स्थायी
बने विश्वगुरु भारत फिर से स्वप्न तुम्हारा
हो सपना साकार यही संकल्प सजाएँ।।

(94)

दीप बन जलते रहो तुम पंथ मैं पाती रहूँगी।
रागिनी तुम खुद सिखाओं गीत मैं गाती रहूँगी।।

थी तमन्ना तीव्र मन में अर्चना करने तुम्हारी
कर रही कब से प्रतीक्षा साध मेरी है कुँवारी
मौन हो चाहे मुखर हो मैं सभी मन की कहूँगी।।

आसमान असीम उसका कहो कैसे पार पाएँ
दूर है मंजिल अभी तक पैर मेरे थक न जाएँ
मनोबल देते रहो तुम कष्ट सब पथ के सहूँगी।।

खास होकर भी सदा तुम आम जनता को सुलभ हो
राम कृष्ण रहीम हो तुम वीर गौतम आदि सब को
प्राप्त कर वरदान तुमसे देव! बन निर्झर बहूँगी।।

(95)

सपनों की दुनिया यह मेरी तुम्हें समर्पित।
सच की धरती दे दो उस पर चलूँ अकम्पित।।

नई दिशा पाकर तुमसे नित कदम बढ़ाऊँ
प्राणों की सरगम पर गीत तुम्हारे गाऊँ
नाम सुमरते ही हो जाता कण-कण स्पंदित।।

माँगूँ कुछ तुमसे मेरी यह चाह नहीं है
चलती हूँ जिस पथ पर कह दो राह सही है
मूर्च्छित हो चैतन्य अगर कर दो आंदोलित।।

लक्ष्य बनाया है ऊँचा अब उसको पाऊँ
देव! तुम्हारी जीवन-पोथी पढ़ती जाऊँ
मिल जाए इस समरांगण में जीत अकल्पित।।

(क्रमशः)