उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य महाश्रमण

आचार्य सम्भूतविजय

आचार्य सम्भूतविजय भगवान महावीर के छठे पट्टधर थे। बयालीस वर्ष की आयु में उन्होंने संयम स्वीकार किया। आचार्य यशोभद्र के वे सफल उत्तराधिकारी बने। आचार्य यशोभद्र ने सम्भूतविजय और भद्रबाहु दोनों को आचार्य पद पर नियुक्‍त करके एक नई परंपरा का श्रीगणेश किया था। परंतु भद्रबाहु आचार्य सम्भूतविजय के सामने पूर्ण उपेक्षा भाव लिए रहे। उनके होते हुए वे संघ-संरक्षण से उपरत रहे।
शिष्य-शिष्याओं की संपदा आचार्य सम्भूतविजय की विशाल और सुयोग्य थी। आर्य स्थूलभद्र, स्थूलभद्र का लघु भ्राता श्रीयक तथा स्थूलभद्र की सातों बहनें(1) यक्षा, (2) यक्षदित्रा, (3) भूता, (4) भूतदिन्‍ना, (5) सेना, (6) रेणा, (7) वेणा भी उन्हीं के पास दीक्षित हुई थीं। उनकी श्रमण-संपदा विशिष्ट अभिग्रहकारक भी थी। कुएँ के पाल पर, सर्प की बांबी पर, सिंह की गुफा में तथा चिरपरिचिता कोशा के यहाँ चातुर्मास करने वाले मुनिगण उन्हीं के शिष्य थे। गुफा, कुएँ का तट तथा सर्प-बांबी पर साधना करने वाले मुनियों को सम्भूतविजय ने दुष्कर कार्य करने वाले तथा स्थूलभद्र को महादुष्कर कार्य करने वाला बताया। तब गुफावासी मुनि को ईर्ष्या हुई। गुरु-वाक्य का अपमान करता हुआ कोशा के वहाँ गया। कोशा के रूप पर आकृष्ट हो गया और उससे काम-प्रार्थना करने लगा। कोशा कुशल महिला थी। वह व्यक्‍ति के दुर्बल मन को सबल बनाना जानती थी। कोशा ने कहानेपाल देश का राजा प्रथम समागत भिक्षुओं को लक्षमुद्रा मूल्य की रत्नकम्बल दान करता है। वह कम्बल मेरे सामने प्रस्तुत कर सको तो इस विषय में कुछ सोच सकती हूँ। मुनि अपने नियमों को विस्मृत कर चतुर्मास काल में ही और मुनिवेश में ही नेपाल पहुँचे और मार्ग में भीषण कठिनाइयों को झेलकर रत्नकम्बल लेकर पुन: कोशा के पास पहुँचे। कोशा ने उस रत्नकम्बल से अपने पैरों को पोंछा और उसे गंदी नाली में फेंक दिया। मुनि चौंके और बोले‘सुभगे! अति कठिन श्रम से प्राप्त इस बहुमूल्य रत्नकम्बल का आप जैसी समझदार महिला के द्वारा यह उपयोग किया जा रहा है?’ मुनि को आश्‍चर्यचकित देखकर संयम जीवन की महत्ता समझाती हुई कोशा ने कहा‘मुने! इस साधारण-सी कम्बल के लिए इतनी चिंता? क्या आप संयम रत्न रूपी कम्बल को खोकर इससे बड़ी भूल नहीं कर रहे हैं?’ मुनि संभल गए। गुरु के पास आत्मालोचन किया और मुनि स्थूलभद्र को साधुवाद दिया।
आर्या यक्षा ने श्रीयक मुनि को पर्वाधिराज का उपवास कराया। उपवास में मुनिवर का स्वर्गवास हो गया। साध्वी को बहुत अनुताप हुआ। उसने अपने आपको दोषी माना। दोषी के रूप में संघ के सामने प्रस्तुत हुई। परंतु संघ ने उसे निर्दोषी घोषित किया। पर साध्वी का मनस्ताप तब मिटा जब शासन-देवी ने उसे श्री सीमंधर स्वामी के पास पहुँचा दिया। प्रभु ने स्पष्ट किया‘श्रीयक मुनि की मृत्यु में तुम्हारा कोई दोष नहीं है।’ प्रभु ने साध्वी को चार चूलिकाएँ भी दीं, जिनमें से दो दशवैकालिक के साथ जुड़ी हैं और दो आचारांग के साथ जुड़ी हैं।
आचार्य सम्भूतविजय चतुर्दश पूर्वधारी श्रुतकेवली थे। बयालीस वर्ष वे घर में रहे। चालीस वर्ष तक संयमी जीवन का पालन किया। उनका आचार्य-काल मात्र आठ वर्ष का रहा। वी0नि0 156 (वि0पू0 314) में दिवंगत हुए।