संबोधि

स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

क्रिया-अक्रियावाद


(10) अणुव्रतानि गृह्णन्ति, गुणशिक्षाव्रतानि च।
विशिष्टां साधनां कर्तुं, प्रतिमा: श्रावकोचिता:॥

वे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत तथा विशिष्ट साधना करने के लिए श्रावकोचित ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करते हैं।

अहिंसा अणुव्रत
गृहस्थ के लिए आरंभज कृषि, वाणिज्य आदि में होने वाली हिंसा से बचना कठिन होता है। गृहस्थ का कुटुम्ब, समाज और राज्य का दायित्व होता है, इसलिए सापराध या विरोध हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है! गृहस्थ को घर आदि चलाने के लिए वध, बंध आदि का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए सापेक्ष हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। वह सामाजिक जीवन के मोह का भार वहन करते हुए केवल संकल्पपूर्वक निरपराध जीवों की निरपेक्ष हिंसा से बचता है, यही उसका अहिंसा अणुव्रत है।

सत्य अणुव्रत
गृहस्थ संपूर्ण असत्य का त्याग करने में असमर्थ होता है परंतु वह ऐसे असत्य का त्याग कर सकता है जिससे किसी निर्दोष प्राणी को बहुत बड़ा संकट का सामना न करना पड़े। यह सत्य अणुव्रत है।

अस्तेय अणुव्रत
गृहस्थ छोटी-बड़ी सभी प्रकार की चोरी छोड़ने में अपने आपको असमर्थ पाता है। किंतु वह सामान्यत: ऐसी चोरी छोड़ सकता है, जिसके लिए उसे राज्य दंड मिले और लोक निंदा करे। डाका डालना, ताला तोड़ना, लूट-खसोटकर दूसरों के धन का अपहरण करनाये सब सद्गृहस्थ के लिए वर्जनीय है।

ब्रह्मचर्य अणुव्रत
गृहस्थ पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं बन सकता किंतु वह अब्रह्मचर्य के सेवन की सीमा कर सकता है। परस्त्रीगमन, वैश्यागमन आदि अवांछनीय प्रवृत्तियाँ हैं। सद्गृहस्थ इनसे बचकर ‘स्वदारसंतोष’ व्रत अपना सकता है। वह अपनी परिणीता स्त्री में ही संतुष्ट रहता है तथा अब्रह्मचर्य की मर्यादा करता है। यह ब्रह्मचर्य अणुव्रत है।

अपरिग्रह अणुव्रत
गृहस्थ समस्त परिग्रह त्याग नहीं कर सकता किंतु वह अपनी लालसा को सीमाबद्ध कर सकता है। यही अपरिग्रह अणुव्रत है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह सब कुछ छोड़कर संन्यासी बन जाए, किंतु इसका प्रतिपाद्य इतना ही है कि वह अतिलालसा में फँसकर अपनी मर्यादाओं को न भूल बैठे। जिसमें लालसा की तीव्रता होती है, वह दोषों से आक्रांत हो जाता है।

गुणव्रत
जो व्रत उपासक की बाह्य-चर्या को संयमित करते हैं, उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। वे तीन हैं
(1) दिग्विरतिपूर्व, पश्‍चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्‍चित कर उसके बाहर न जाने का व्रत।
(2) उपभोग-परिभोग परिमाणअपने उपयोग में आने वाली वस्तुओं का परिमाण करना।
(3) अनर्थदंड विरति-बिना प्रयोजन हिंसा करने का त्याग करना।