साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

91

सिहरन पैदा कर दी जिसने सब प्राणों में
स्वर छेड़ा वह तुमने इस धरती-अम्बर में
घिरी हुई गमगीन निशाओं की मायूसी
हरने आए दिव्य मशालें थामे कर में।।

हर मानव की पीर मिटाना लक्ष्य तुम्हारा
अश्रु पोंछने आँखों के तुम आगे आए
मन की आहों ने आश्वासन पाया तुमसे
पूरा करने सब चाहों को कदम बढ़ाए
रही अधूरी अंतहीन वे आकांक्षाएँ
जो इतराती भौतिकता की लहर-लहर में।।

नहीं समझ पाते जो गूढ़ अर्थ पूजा का
धूप दीप फल फूल चढ़ाकर खुश हो जाते
दरवाजे पर खड़े देव को ओझल करके
सूनी-सी राहों में अपने नयन बिछाते
बेहोशी में लगी बीतने विवश जिंदगी
अलख जगाई दिव्य चेतना की घर-घर में।।

झूम उठा माटी का पुतला मानव तुम पर
हर दर्दी की पीड़ा को तुमने सहलाया
किया कुहासे ने बंदी उजली किरणों को
तम को हरने तुमने ही आलोक बिछाया
धन्य हुआ तुमको पाकर कुदरत का कण-कण
अभिवंदन कर रही देवते! नश्वर स्वर में।।

(92)

मंजिल और मार्ग की विस्मृति मनुज हुआ गुमराह।
तभी तुम्हारे युग चरणों से निकली सीधी राह।।

रवि को आच्छादित करते रजकण अम्बर में छाह
पग-पग पर तीखी शूलें पाकर राही घबराए
देख सघनता जंगल की जब मंद हुआ उत्साह।।

सागर के तल तक जा मैंने देखा दृश्य अनोखा
लहरों का आघात अनवरत मिला न तट का मौका
खोजे सो पाए सुन मन में जागी नूतन चाह।।

रत्नों के हैं ढेर वहाँ पर न पारखी आँखें
छूनी हैं नभ की बुलंदियाँ पास नहीं पर पाँखें
क्या करना अब मुझे देवते! तुम दो उचित सलाह।।

(क्रमशः)