आत्मा के स्वरूप से सामंजस्य की प्रेरणा लें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आत्मा के स्वरूप से सामंजस्य की प्रेरणा लें : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 30 जुलाई, 2021
शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम के आठवें अध्याय के 114वें सूत्र में कहा गया है कि केवली समुद्घात आठ समय का होता है। केवली पहले समय में दंड करते हैं। दूसरे समय में कपाट करते हैं। तीसरे समय में मंथन करते हैं। चौथे समय में समूचे लोक को भर देते हैं। पाँचवें समय में लोक का-लोक में परिव्याप्त आत्म प्रदेशों का संहरण करते हैं। छठे समय में मंथन का संहरण करते हैं। सातवें समय में कपाट का संहरण करते हैं और आठवें समय दंड का संहरण करते हैं।
हमारा जीवन दो तत्त्वों का योग है। एक हैशरीर और दूसरा हैआत्मा। जीवन ही नहीं ये पूरी सृष्टि दो तत्त्वों वाली हैजीव या अजीव। शरीर के भीतर आत्मा रहती है। कोई-कोई स्थिति ऐसी भी आती है, दुनिया में कि आत्मा के प्रदेश शरीर से बाहर भी निकल जाते हैं।
जैन दर्शन का एक शब्द हैसमुद्घात। उसके सात प्रकार हैं। वेदना, कषाय, मरणांत, वैक्रिय, आहारक, तेजस, केवल। शास्त्रकार ने यहाँ एक केवली समुद्घात की चर्चा की है। केवली समुद्घात के द्वारा इस बात को अच्छे तरीके से जाना जा सकता है कि आत्मा के प्रदेश किस रूप में बाहर निकलकर फैलते हैं।
प्रत्येक आत्मा के असंख्य अवयव-प्रदेश होते हैं। असंख्य प्रदेशों का पिंड आत्मा होती है। दो शब्द हैंप्रदेश और परमाणु। प्रदेश और परमाणु एक समान आकार वाले हैं। परमाणु स्वतंत्र रूप रहता है, प्रदेश जुड़ा हुआ रहता है। आत्म प्रदेश असंख्य है। जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं, उतने ही प्रत्येक आत्मा के प्रदेश हैं।
चार चीजों के प्रदेश एक समान हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव। धर्मास्तिकाय के सारे प्रदेश फैले हुए हैं, उसी रूप में रहते हैं। ऐसा नहीं कि कभी संकोच कभी विकोच। अधर्मास्तिकाय के प्रदेश भी अनंत काल से हैं, वैसे पड़े हैं, उनमें कोई संकोच, विकोच फैलाव-सिकुड़न ऐसा नहीं होता है। लोक के असंख्य प्रदेश हैं, वैसे पड़े हैं। परंतु जीव के प्रदेशों की स्थिति भिन्‍न है। जीव के प्रदेश फैल भी सकते हैं, थोड़े में भी आ सकते हैं।
आत्मा को जितना स्थान मिले, उतने में समाविष्ट हो जाती है। चाहे हाथी हो या कुंथु का शरीर। यह एक प्रसंग से समझाया। राहगीर और दीपक के उदाहरण से समझाया। आत्मा की एक स्वभाविक स्थिति है कि आत्मा बड़े शरीर में फैल सकती है, छोटा शरीर हो तो छोटे में भी फैलाव हो सकता है। पूरी आत्मा कभी-कभी धर्मास्तिकाय की तरह पूरे लोक में फैलती है। वहाँ चार प्रदेश हैंलोक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और जीव का प्रदेश है। चारों प्रदेश एक साथ हो जाते हैं।
धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय एक-दूसरे के विरोधी तत्त्व हैं। पर दोनों एक आकाश में साथ रहते हैं। अनंतकाल से रह रहे हैं, रहेंगे। दोनों से प्रेरणा लें कि कैसे विरोधी के साथ सह-अवस्थान हो सकता है।
शास्त्रकार बता रहे हैं कि केवली-समुद्घात क्यों होता है। तीर्थंकरों के तो समुद्घात होता ही नहीं है। हर केवली का समुद्घात हो यह भी जरूरी नहीं है। किसी-किसी के हो सकता है। केवली के चार ही कर्म होते हैंवेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्र। ये चार अघाति कर्म हैं, इन चार कर्मों से हमें विशेष खतरा नहीं है। हमें खतरा हैघाति कर्मों से, उसमें भी ज्यादा मोहनीय कर्म से है। इतना खतरा है कि जब तक ये चार कर्म रहेंगे, मोक्ष नहीं मिलेगा। जब सिद्धत्व अवस्था प्राप्त होती है, तब चारों ये सिद्धावस्था के प्रथम समय में समागत होते हैं।
प्रथम समय ना सिद्ध च्यार कर्मा नां अंश खपावैरे।
चौथे ठाणे प्रथम उद्देशे: बुद्धिवंत न्याय मिलावै रे॥ चर्चा धारो रे।

केवली के जब वेदनीय कर्म, नाम कर्म और गौत्र कर्म इनकी जो स्थिति है, उससे आयुष्य कर्म की स्थिति कम रह जाती है। चारों में एड्जेस्टमेंट बैठाने के लिए केवली समुद्घात होता है और स्थिति में जो असामंजस्य है, वो खत्म हो करके चारों की स्थिति में सामंजस्य बैठ जाता है। केवली समुद्घात की नहीं जाती है, वो होती है। वो क्रिया स्वाभाविक होती है।
इस समुद्घात में आठ समय लगते हैं। पहले समय में आत्मा दंड की तरह ऊपर-नीचे फैलती है। दूसरे समय में आत्मा कपाट की तरह चौड़ाई में फैल जाती है। तीसरे समय में मंथन की प्रक्रिया होती है, इसमें आत्मा के प्रदेश वात वलय के सिवाय समूचे लोक में फैल जाते हैं। चौथे समय में आत्मा पूरे लोक में फैल जाती है। पाँचवें समय में आत्मा फैले हुए प्रदेशों को संगृहित करती है। फिर छठे में मंथन, सातवें में कपाट और आठवें में दंड को संगृहित कर शरीर में समा जाती है। आठ समय में केवली समुद्घात की प्रक्रिया संपन्‍न हो जाती है। इस आठ समयों में पहले और आठवें में औदारिक योग, दूसरे छठे, सातवें समय में औदारिक मिश्र योग होता है। तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मण योग होता है।
एक मान्यता यह भी है कि जब जीव का आयुष्य छ: महीनों से अधिक रहता है और उसे केवलज्ञान हो जाता है तो उसे निश्‍चित केवली समुद्घात होती ही है। अनंत केवली बिना समुद्घात के मोक्ष में गए हैं। हम केवली समुद्घात को देखकर एक सामंजस्य बिठाना सीखें। ज्पउम डंदंहमउमदज कैसे बिठाना, इससे समझा जा सकता है।
पूज्यप्रवर ने माणक महिमा का विवेचन करते हुए पूज्य जयाचार्य के जयपुर के लंबे काल का बालक ने कैसे लाभ उठाया, वो समझाया।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी की एक नवीन कृति ‘क्षमा की पराकाष्ठा’ को श्रीचरणों में लोकार्पित किया गया। मुख्य नियोजिका जी ने इस ग्रंथ के संदर्भ में विस्तार से समझाया।
पूज्यप्रवर ने इस संदर्भ में फरमाया कि यह पुस्तक क्षमा की पराकाष्ठा। क्षमा एक उत्तम धर्म है। पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी विद्वत व्यक्‍तित्व के धनी थे। यह आख्यान साहित्य है। यह प्रेरणादायी है। मैं अपनी श्रद्धा अर्पण करता हूँ। जैविभा ज्ञान की खुशबू फैलाने का कार्य कर रही है। यह व्याख्यान में उपयोगी हो, मंगलकामना।
अभातेयुप के राष्ट्रीय अध्यक्ष संदीप कोठारी ने पूज्यप्रवर को तेरापंथ टाइम्स के ई-पोर्टल को श्रीचरणों में प्रस्तुत किया एवं इसकी विस्तृत जानकारी दी।

पूज्यप्रवर ने फरमाया कि यह जो ‘तेरापंथ टाइम्स’ है, वो भी हमारे संघीय समाचारों का एक सशक्‍त माध्यम है।
विज्ञप्ति के बाद में तेरापंथ टाइम्स है। अभातेयुप अपनी शाखाओं के साथ खूब धार्मिक, आध्यात्मिक प्रचार-प्रसार करती रहे, खूब अच्छा विकास हो।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान तपस्वियों को कराए। सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण करवाई।
विजयानंद प्रांत संचालक चित्तौड़गढ़, गोविंद क्षेत्रीय स्वावलंबन तथा प्रांत संगठन मंत्री सेवा भारती चांदनमल सोमानी और रवींद्र ने पूज्यप्रवर के दर्शन किए। आरएसएस का चित्तौड़ विशेषांक पूज्यप्रवर को उपरित किया। विजयानंद ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
पूज्यप्रवर ने फरमाया कि स्वयं सेवक संघ का विशेषांक है। हम लोग अहिंसा यात्रा करते आ रहे हैं। नागपुर के संघ कार्यालय भी गए थे। सर संघ संचालक हर वर्ष प्राय: आते रहते हैं। आप लोग धार्मिक, नैतिक मूल्यों का विकास करते रहें।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में संपत चोरड़िया, संपत सामसुखा, मोहन भंडारी, सुरेंद्र मेहता, मीठालाल गन्‍ना, शंकर पितलिया, रेणु चोरड़िया ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
मुख्य नियोजिका जी ने मृगा लोढ़ा के बारे में समझाते हुए कर्मों की विचित्र गति को विस्तार से समझाया।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।