साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(84)

आज समय के सागर में यह कैसी हलचल।
मौसम बना सुहाना घुली पवन में परिमल।।

खिली भोर सूरज से पहले नभ मुसकाया
बिछा नया आलोक मिटाकर तम का साया
धूप किशोरी वृक्षों पर चढ़कर इठलाती
खड़ी फसल जो खेतों में वह भी लहराती
निर्झरिणी भावों की अविरल बहती कलकल।।

साँसों की सरगम आस्था का गीत सुनाती
सृजन-चेतना नित्य नई सौगात सजाती
महक उठे जलजात पात सब मानस-सर में
इंद्रधनुष से रंग खिले चिंतन-अम्बर में
मिलता रहे समय पर सदा प्रेरणा का बल।।

स्वर्ग बने यह धरती ऐसी कला सिखाओ
मानव-मन की हर उलझन को तुम सुलझाओ
भावी के सुंदर सपनों को सत्य बनाओ
पतितों के पावन प्राणों को सुधा पिलाओ
बन जाए अभिराम राम! जीवन का पल-पल।।

(85)

रेशमी किरणें बिछी हैं नील नभ में
धरा का कण-कण मधुर नगमे सुनाए
खींचती मन को महक चंदन-वनों की
आज कुदरत कौन-सा उत्सव मनाए।।

तमस हिंसा का सघन छाया जहाँ में
दीप तुमने ही अहिंसा का जलाया
जखम सीने में लगे संवेदना के
सुधा से भरकर चषक तुमने पिलाया।।

जाति मजहब की दरारें पाट तुमने
प्रेम करुणा अभय की धारा बहाई
जोड़कर टूटे हुए तटबंध सारे
जिंदगी के गणित की भाषा सिखाई।।

तेज सूरज-सा दमकता है तुम्हारा
नयन हँसते झील में मानो कमल हैं
घूमता है वलय ऊर्जा का चतुर्दिक्
जगत को आश्वस्ति देते भुजयमल हैं।।

शास्त्र अद्भुत रच दिया दर्शन अनूठा
आर्यवर! युग-युग ऋणी दुनिया तुम्हारी
जन्मदिन पर क्या तुम्हें सौगात दें हम
शेष साँसें जिंदगी की लो हमारी।।

(क्रमशः)