जन्म-मरण की परंपरा को तोड़ने में व्रत साधना सहायक: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जन्म-मरण की परंपरा को तोड़ने में व्रत साधना सहायक: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 20 अगस्त, 2022
परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया है कि भंते! पृथ्वियाँ कितनी बताई गई हैं। इसके जवाब में भगवान ने कहा किपृथ्वियाँ सात प्रज्ञप्त हैं, रत्न प्रभा, शर्करा प्रभा, बालुका प्रभा, पंक प्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, महातमः प्रभा। प्रश्न किया गया कि क्या सब प्राणी पहले वहाँ उत्पन्न हुए हैं? हाँ गौतम! अनेक बार अथवा एक बार उत्पन्न हो गए। जैन दर्शन में अनंत जीव बताए गए हैं। प्रत्येक जीव के अनंत-अनंत जन्म-मरण हो चुके हैं। जन्म-मरण का चक्र संसारी जीवों के चलता रहता है। जो सिद्ध हुए हैं, उन्होंने भी पहले अनंत जन्म-मरण किए हैं, पर अब वे जन्म-मरण से मुक्त हो गए हैं। जन्म है, तो मृत्यु का होना सुनिश्चित है।
पर्युषण पर्व धर्माराधना का उत्तम अवसर है। पर्युषण पर्व जो वर्ष में एक बार आता है, उसके प्रति आध्यात्मिक उत्साह भी देखने को मिलता है। तपस्याओं का क्रम भी चलता है। धर्म एक सीमा तक तो हमेशा ही करना चाहिए। कल की सोचते हो तो आज ही कर लो। कल कर लोगे, यह बात करने का हक तीन मनुष्यों को है। एक तो वह जो कहता है कि मेरी मौत के साथ दोस्ती हो गई है। दुनिया में स्वार्थ ज्यादा चलता है। दूसरा आदमी कहता है कि मैं दौड़ने में तेज हूँ। मौत इधर से आती दिखेगी, मैं उधर से दौड़ जाऊँगा। मौत मुझे पकड़ ही नहीं पाएगी। तीसरा आदमी वह है, जो यह जानता है कि मैं तो कभी मरूँगा ही नहीं। मैं तो अमर हूँ। पर ऐसा कभी होता नहीं है। मृत्यु तो निश्चित है।
भगवती सूत्र का कथन है कि सारे प्राणी अनेक बार अथवा अनंत बार पैदा हो चुके हैं। कोई-कोई जीव वनस्पतिकाय निगोद में ही रहकर मनुष्य बनता है और मोक्ष में चला जाता है। जैसे मरुदेवा माता का जीव। परंतु वनस्पतिकाय में तो अनंत बार जन्म-मरण कर लिया। बार-बार की जन्म-मरण की परंपरा से छुटकारा कैसे मिले। इस जीवन का संभवतया सबसे बड़ा लक्ष्य यह हो सकता है कि मैं मोक्ष को प्राप्त करूँ। मोक्ष के समान दूसरा कोई बड़ा लक्ष्य होना मुश्किल है। मोक्ष प्राप्ति की दिशा में खूब आगे बढ़ूँ। साधु हो या श्रावक मोक्ष की साधना करने वाला है। देश विरत भी जितनी तपस्या या त्याग करता है, मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ सकता है।
बार-बार इन सात पृथ्वियों में पैदा होने की परंपरा से छुटकारा मिल जाए इसके लिए हमारी धर्म की साधना आराधना है। संयम की साधना है। हम साधु या श्रावक हैं बने हैं, इसकी सैद्धांतिक पृष्ठभूमि में यह बात है कि मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ूँ। तिर्यंच श्रावक भी हो सकते हैं, जो मरकर आठवें देवलोक तक जा सकते हैं। साधु-साधुत्व में और श्रावक-श्रावकत्व में आगे बढ़ें। श्रावक 12 व्रत सुमंगल साधना स्वीकार करें। जन्म-मरण की परंपरा को तोड़ने के लिए साधना सहायक बनती है। आत्मा निर्मल बने और कभी जन्म-मरण की परंपरा का विच्छेद हो जाए।
परम पावन ने कालू यशोविलास का विवेचन करते हुए फरमाया कि भिवानी में तेरापंथी जैन तो कम थे। जैनेत्तर लोग बहुत हैं। दीक्षा का विरोध कर रहे हैं। पर कालूगणी का भी प्रभाव है। दीक्षा रोकने का प्रयास कर रहे हैं। तेरापंथी विरोध को रोकने का चिंतन कर रहे हैं। दीक्षा की पहली रात में विरोधी लोग अपनी बड़ी सभा आयोजित कर रहे हैं। नारेबाजी हो रहे हैं। दीक्षा कभी नहीं होने देंगे। न सुख से सोएँगे, न सुख से सोने देंगे। अनेक तरह की योजनाएँ बन रही हैं कि येन-केन दीक्षा को रोकना है। दीक्षार्थियों को ही उठाकर ले जाएँगे। जैसे आकाश में फूल नहीं खिल सकता, वैसे ही भिवानी में दीक्षा नहीं होने देंगे।
रात की सभा में एक घटना घटित हो रही है। ऐसा लगा कि आकाश में कोई सफेद-सफेद चीज गिर रही है। कोई कहता है कि सफेद बच्छड़ा सा है, कोई कहता है कि ये तो मारनी गाय है। कोई कहता है नहीं-नहीं ये तो कोई ओपरी छाया आई है। भागो-भागो की आवाज से पूरी सभा में भगदड़ मच जाती है। सारे लोग भाग जाते हैं। सभा स्थल पूरा खाली हो जाता है। रड़भड़ते अपने घर की ओर भागते हैं। अंधेरे में गौड़े फूट जाते हैं। एक-दूसरे पर गिर जाते हैं। किसी की पगड़ी रह गई, किसी की चप्पल रह गई। पहली रात में क्या पता क्या घटना हो जाती है। कालूगणी का पुण्य था जो दीक्षा होनी थी और हो भी गई। कोई दिव्य शक्तियाँ भी होती है, जो दीक्षा को रोकना नहीं चाहती है। घटना जो भी घट गई। दीक्षा का रास्ता साफ हो गया और अगले दिन बाजार में बिना किसी अवरोध के दीक्षाएँ हो गई। बहुत भारी संख्या में जनसभा उपस्थित है।
विरोधियों ने सोचा कि हमारी योजना तो फैल हो गई, फिर भी वे शांत नहीं बैठते हैं। विरोधी लोग किसी को साधु कपड़ा पहनाकर कालूगणी के पास आते हैं। पर कालूगणी सभी को शांत रहने का उपदेश देते हैं। उस चातुर्मास में भिवानी के श्रावक द्वारकादास जी ने चार महीने तक अपनी दुकान नहीं खोली। कपड़े का व्यापार था। माल सारा गोदाम में भरा था। चतुर्मास के बाद कालूगणी विहार कर देते हैं। द्वारकादासजी उसके बाद दुकान खोलते हैं, तो कपड़े में दुगुनी, तिगुनी तेजी आ जाती है। गुरु सेवा का प्रसाद हाथोहाथ मिल जाता है। द्वारकादासजी हर वर्ष पूरे परिवार के साथ दो बार सेवा करते थे। कालूगणी की भी उन पर कृपा थी। थली की ओर विहार हो रहा है। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। मुनि राजकुमार जी ने तपस्या की प्रेरणा दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।