उपासना (भाग - एक)

स्वाध्याय

उपासना (भाग - एक)

आचार्य अभयदेव (नवांगी टीकाकार)

खरतरगच्छीय कई पट्टावलियों के उल्लेखानुसार अभयदेवसूरि का स्वर्गवास वी0नि0 1605 (वि0सं0 1135) में तथा मतानुसार उनका स्वर्गवास कपड़गंज में वी0नि0 1609 (वि0सं0 1139) में हुआ था।
यशस्वी टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि की कुल आयु सड़सठ वर्ष की थी।
आचार्य अभयदेव ने टीका-रचना का कार्य वी0नि0 1590-1598 (वि0सं0 1120-1128) में किया था। पट्टावलियों के अनुसार टीका-कार्य-संपन्नता के छह वर्ष अथवा ग्यारह वर्ष बाद ही उनका स्वर्गवास हो जाता है। इस आधार पर अभयदेव वी0नि0 15वीं-16वीं (वि0सं0 11वीं-12वीं) सदी के विद्वान् सिद्ध होते हैं।
आचार्य अभयदेवसूरि का टीका साहित्य के रूप में जैन समाज को महान् अनुदान है।

आचार्य हेमचंद्र

श्रीहेमचंद्रसूरिणामपूर्वं वचनामृतम्।
जीवातुर्विश्वजीवानां राजचित्तावनिस्थितम्।।
‘आचार्य हेमचंद्र के वचन समस्त प्राणियों के लिए अमृततुल्य हैं’ प्रभाचंद्राचार्य के इन शब्दों में अतिरंजन नहीं है। विद्वान् हेमचंद्र युगसंस्थापक आचार्य थे। वे असाधारण प्रज्ञा से संपन्न थे। सार्धत्रय कोटि पद्यों की रचना कर उन्होंने सरस्वती के भंडार को अक्षय-निधि से भरा था। गुजरात नरेश सिद्धराज जयसिंह को अध्यात्म-संदेश से प्रभावित कर एवं उनके उत्तराधिकारी नरेश कुमारपाल को व्रत-दीक्षा प्रदान कर जैनशासन के गौरव को सहò-गुणित विस्तार प्रदान किया था। उनके ज्ञान-सूर्य की किरणों के प्रसार से गुजरात-संस्कृति के प्राण पुलक उठे थे। धरा का कण-कण अध्यात्म-आलोक से जगमगा उठा था। सामाजिक, राजनीतिक जीवन में भी नव चेतना का जागरण हुआ। साहित्य-संस्थान को नया रूप मिला था। कला सजीव हो गई थी। गुजरात राज्य में यह काल जैनधर्म के परम उत्कर्ष का काल था।
प्रभावक चरित्र ग्रंथ के अनुसार आचार्य हेमचंद्र के गुरु चंद्रगच्छ के देवचंद्रसूरि थे। आचार्य हेमचंद्र वणिक्-पुत्र थे। उनका जन्म गुजरात प्रदेशांतर्गत धन्धूका नगर में वी0नि0 1615 (वि0सं0 1145, ई0 1088) में कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि के समय मोढ़ वंश में हुआ था। उनके पिता का नाम चच्च अथवा चाचिग एवं माता का नाम पाहिनी था। उनका नाम चांगदेव था।
आचार्य हेमचंद्र के समय में गुजरात प्रदेशांतर्गत अणहिल्लपुर (पाटण) नगर में सिद्धराज जयसिंह का राज्य था। नरेश के कुशल नेतृत्व में राज्य भौतिक संपदा की दृष्टि से उत्कर्ष पर था। प्रजा सुखी थी। अणहिल्लपुर के अंतर्गत धन्धूका भी एक समृद्ध नगर था। नगर में अनेक वणिक् परिवार रहते थे। उनमें मोढ़ परिवार विख्यात था। हेमचंद्रसूरि के पिता चाचिग श्रेष्ठी मोढ़ वंश के अग्रणी थे। वे धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। विद्वज्जनों का सम्मान करते थे। उनके पूर्वज मोढ़ेरा ग्रामवासी होने के कारण ही वे मोढ़ वंशी कहलाते थे। हेमचंद्र की माता पाहिनी भी साक्षात् लक्ष्मी रूपा एवं शील गुण संपन्ना थीं। जैन धर्म में उनकी आस्था दृढ़ थी। हेमचंद्र जब गर्भ में आए, उस समय पाहिनी ने स्वप्न में अपने को चिंतामणि रत्न गुरु के चरणों में भक्ति-भाव से समर्पित करते देखा। प्रबंध कोश के अनुसार उसने स्वप्न में आम्रफल देखा था। उस समय धंधूकापुर में चांद्रगच्छ से संबंधित प्रद्युम्नसूरि के शिष्य देवचंद्रसूरि विराजमान थे। पाहिनी ने स्वप्न की बात उनके सामने रखी। स्वप्न का फलादेश बताते हुए गुरु ने कहाµपाहिनी! तुम्हारी कुक्षि से पुत्र-रत्न का जन्म होगा। वह जैनशासन सागर में कौस्तुभमणि तुल्य प्रभावी होगा।
गुरु के वचनों को सुनकर पाहिनी प्रसन्न हुई। विशेष धर्माराधना के साथ वह समय बिताने लगी। कालावधि समाप्त होने पर उसमें ई0 सन् 1088 में कार्तिक पूर्णिमा की मध्य रात्रि में तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। जन्म के बारहवें दिन उल्लासपूर्ण वातावरण में पुत्र का नाम चांगदेव रखा गया। अभिभावकों के समुचित संरक्षण में बालक दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा।

(क्रमशः)