संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(12) सम्यग्दृष्टेरवबोधो, भवेज्ज्ञानं तदीक्षया।
धुतमोहो निजं पश्यन्, सम्यग्दृष्टिरसौ भवेत्।।
सम्यग्-दृष्टि व्यक्ति का ज्ञान सत्-पात्र की अपेक्षा से सम्यग्-ज्ञान कहलाता है। जिसका दर्शनमोह विलीन हो गया है और जो आत्मा को देखता है, वह सम्यग् दृष्टि होता है। अनंतानुबंधी मोह का अनुदय होने पर सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यक् दृष्टि में ‘स्व’ और ‘पर’ का विवेक जागृत हो जाता है। वह ‘स्व’ को जान लेता है, ‘पर’ में उसकी अभिरुचि नहीं होती। गृहस्थ जीवन में रहता हुआ भी वह निर्लिप्त-सा जीवन जीता है।
सम्यक्दृष्टि जीवड़ा, करै कुटुम्ब प्रतिपाल।
अंतर में न्यारा रहै, (जिम) धाय खिलावै बाल।।
सम्यक्दृष्टि अंतरात्मा है। वह बाहरी क्रिया की प्रतिक्रिया अपने ऊपर नहीं होने देता। वह कार्य करता हुआ भी मन से पृथक् रहता है। समाधिशतक में पूज्यपाद लिखते हैंµबुद्धि में आत्मा के अतिरिक्त किसी भी कार्य को चिरकाल तक टिकाए न रखें। आवश्यकतावश यदि कोई कार्य करना हो तो शरीर और वाणी से करें, किंतु मन का संयोजन न करें। अपने कार्य के लिए कुछ कहना हो तो वह कहकर उसको भूल जाएँ। सुखी और सरल जीवन जीने की इससे बढ़कर और कोई कला नहीं है। मनुष्य इस संभव को असंभव मान परिस्थितियों के हाथों में अपना अस्तित्व सौंप देता है। मनुष्य स्वयं अपना निर्माता है। सम्यग् दर्शन और कुछ नहीं, स्व का निर्माण है, दर्शन है।

(क्रमशः)