आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा

देश और काल: एक बहाना

गुरु के वचनों से शिष्य का मन आश्वस्त नहीं हुआ। वे फिर बोले, ‘गुरुदेव! आपका कथन ठीक है, पर वह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। सतयुग में साधना का जो स्वरूप था वह आज बदल कैसे सकता है? उस समय जो उपवास होता था, वही तो आज होता है। क्या आज कोई व्यक्ति चार रोटी खाकर उपवास करता है? इस युग में भी हमें साधना की उसी पद्धति को उजागर करके चलना है, जो हमें अपने आगम-पुरुषों से उपलब्ध है। आप उस मार्ग पर चलना चाहें तो मैं आपके साथ हूँ। अन्यथा आप मुझे अनुज्ञा दीजिए, मैं अपनी मंजिल तक पहुँचकर रहूँगा। यह घोषणा उस व्यक्ति की है, जिसने देश और काल को अतिरिक्त मूल्य नहीं दिया। जो देश और काल के प्रवाह में नहीं बहा। वह साधना के पथ पर आगे बढ़ा ही नहीं, उसने वहाँ अपने चरण-चिÐ अंकित कर दिए जो शताब्दियों के बाद भी गुमराह व्यक्तियों को पथ-दर्शन देने वाले हैं।
हमारी कठिनाई एक है कि हमने साधना के लिए मनुष्य को पकड़ा। यदि हम पशुओं पर प्रयोग करते तो संभवतः अधिक सफल होते। क्योंकि उनका अपना कोई चिंतन और धारणाएँ नहीं होती। उन्हें जो कुछ समझाया जाता, वे उसी का अनुसरण करते। पर पता नहीं इस मनुष्य की खोपड़ी में क्या भरा है, जो वह इतना ग्रहणशील नहीं हो पा रहा है। एक भिखारी हाथ में भिक्षा-पात्र लिए शहर में घूम रहा था, पर किसी के सामने हाथ नहीं पसार रहा था। उसकी यह प्रतिज्ञा थी कि वह उसी व्यक्ति से भिक्षा लेगा, जो उसके भिक्षा-पात्र को स्वर्ण-मुद्राओं से भर देगा। शहर में बहुत धनी-मानी व्यक्ति रहते थे, किंतु किसी ने उसकी प्रतिज्ञा पूरी नहीं की। बात राजा तक पहुँची। राजा ने सुना कि उसके राज्य में एक ऐसा भिखारी घूम रहा है, जिसको भीख देने वाला कोई नहीं है। राजा की प्रतिष्ठा का प्रश्न था। उसके अहं पर चोट हुई। उसने भिखारी को अपने सामने उपस्थित करने का आदेश दिया।
भिखारी राजा के सामने खड़ा था। राजा ने पूछा-‘क्या चाहता है?’ वह बोला-‘राजन्! यह मेरा पात्र स्वर्ण-मुद्राओं से भर जाए, यही एक छोटी-सी चाह है।’ राजा ने कोषाध्यक्ष को बुलाकर कहा-‘जाओ, इस भिखारी का पात्र स्पर्ण-मुद्राओं से भर दो।’ कोषाध्यक्ष ने आदेश का पालन किया। पर आश्चर्य! पूरा राज्यकोष खाली होने पर भी भिक्षा-पात्र नहीं भरा। राजा के पास सूचना पहुँची। उसने भिखारी से पूछा-‘यह क्या बला है? वह बोला-‘राजन्! मुझे एक पात्र की जरूरत थी। मैं उसकी खोज में घूमता-घूमता श्मशान में पहुँच गया। वहाँ मुझे यह खोपड़ी मिली। उसी को मैंने भिक्षा-पात्र बना लिया।’ राजा ने फिर पूछा-‘किसकी खोपड़ी है यह?’ भिखारी बोला-‘राजन्! यह मनुष्य की खोपड़ी है। इसमें कितना ही डाल दो, यह भरती ही नहीं है।’
कैसा तीखा व्यंग्य है यह मनुष्य पर। हम उस मनुष्य पर साधना के प्रयोग कर रहे हैं, जिसकी खोपड़ी कभी भरती ही नहीं है। उसे जो कुछ तत्त्व दिया जाएगा, वह विस्मृत होता जाएगा, ऐसी स्थिति में साधना का प्रयोग स्वयं ही प्रश्न-चिÐ नहीं बन जाएगा क्या? मैं तो बहुत बार यह सोचता हूँ कि साधना करनी न पड़े, सहज हो जाए वह स्थिति सुंदर है। साधना-काल में साधक ध्यान के साथ जप का प्रयोग भी करता है। जप के लिए एक मंत्र है ‘सोऽहम्’। ‘सोऽहम्’ शब्द का उच्चारण बहुत स्थूल बात है। हम जो श्वास लें वह ‘सोऽहम्’ में परिणत हो जाए, तब साधना का क्रम आगे बढ़ता है। सोऽहं, सोऽहं, सोऽहं के जप में इतनी तल्लीनता आ जाए कि सोऽहं-हंसोऽहं में परिणत हो जाए। यह हंस क्या है? परम हंस, परमात्मा ही तो है। चेतना जब निर्मल बन जाती है, हंस बन जाती है, विवेकी बन जाती है, तब ही साधना की निष्पत्ति आ पाती है।

अकर्म से निकला हुआ कर्म

साधना के क्षेत्र में कर्म और अकर्म की समस्या भी कम उलझी हुई नहीं है। कुछ साधक अकर्म को ही सर्वाधिक मूल्य देते हैं। वे कर्म को छोड़ना चाहते हैं। किंतु गीता इस तथ्य को नकारती हुई कहती- न हि देहभृतां कश्चित्। जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।।
जितने देहधारी प्राणी हैं, उनमें कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो कर्म किए बिना रह सके। जैन दर्शन के अनुसार आत्म-विकास की चौदह भूमिकाओं में तेरहवीं भूमिका तक व्यक्ति कर्म करता रहता है। चौदहवीं भूमिका में रहने का कालमान एक मिनट का भी नहीं है, ऐसी स्थिति में संसारी प्राणी के लिए अकर्म रहने की बात समझ में नहीं आ सकती। कोई व्यक्ति एक घंटा कर्म करता है और आधा घंटा आँख मूँदकर बैठ जाता है। क्या यह अकर्म की साधना नहीं है? स्थूल दृष्टि से यह अकर्म जैसा प्रतीत होता है, पर सूक्ष्म दृष्टि से बैठना भी एक प्रकार का कर्म है।
संसारी प्राणी अकर्म में नहीं रह सकता, यह एक सार्वभौम और सार्वकालिक सत्य है तो फिर यह कर्म और अकर्म का द्वंद्व खड़ा ही क्यों किया जाता है? इस प्रश्न का समाधान भी गीता में प्राप्त है। वहाँ बताया गया- कर्मण्यकर्म यः पश्येत्। अकर्मणि च कर्म यः।।
जो व्यक्ति कर्म में अकर्म को देखता है और अकर्म में कर्म को देखता है, वही प्रज्ञावान है। गीता का यह सत्य भाव-क्रिया के संदर्भ में शत-प्रतिशत सही उतरता है। भाव-क्रिया का अर्थ है वर्तमान में क्रियमाण क्रिया के अतिरिक्त अन्य सब क्रियाओं का विसर्जन। एक कर्म के अतिरिक्त बाकी सब कर्मों की विस्मृति कर्म में अकर्म की साधना है। इसी प्रकार ऊपर से सब क्रियाओं को छोड़कर मन को यायावर बनाए रखना अकर्म में कर्म का प्रयोग है।
जैन दर्शन में दो शब्द आते हैं-समिति और गुप्तिं समिति अमुक प्रकार की प्रवृत्ति है फिर भी इसमें गुप्ति (प्रवृत्ति-निषेध) की अनिवार्यता है। यह कर्म अकर्म की साधना का प्रतीक है। समिति पाँच प्रकार की है-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग। जिस समय ईर्या समिति होती है, अन्यान्य सब क्रियाओं की गुप्ति हो जाती है। एक दिशा में प्रवृत्ति शुरू होते ही शेष सब दिशाओं की प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं। यह गुप्ति-संवलित समिति अर्थात् अकर्म प्रधान कर्म है। गुप्ति के तीन प्रकार हैं-मन, वचन और काय। वचन-गुप्ति की साधना करने वाला व्यक्ति दिन-भर बोलने पर भी मौनी कहा जा सकता है। यह कर्म में से निकला हुआ अकर्म है।

(क्रमशः)